पत्रकार होना मतलब हुड़ हुड़ दबंग, दबंग, दबंग। जिसे देखो, वही पत्रकार है, सड़क से गुजरने वाले हर तीसरे-चौथे वाहन में प्रेस लिखा दिखता है। अखबार के हाकर की तो छोड़िए, प्रिटिंग प्रेस वाले, धोबी और दूधवाले भी मानो प्रेसवाले हो गए। दो पहिया वाहन, चार पहिया वाहन और अब तो लोग ट्रक में भी प्रेस लिखाने लगे हैं। जैसे सावन के अंधे को हरियाली ही नजर आती है, उसी तरह पत्रकार बनने के इच्छुक उम्मीदवारों को भी इसमें हरा ही हरा सूझता है। इससे हटकर एक और बात कि किसी परिवार का एक व्यक्ति प्रेस में काम करता है या पत्रकार होता है, लेकिन उसकी पत्रकारिता का उपयोग उसके पूरे खानदान वाले करते हैं। सब के अपने-अपने तर्क हैं प्रेस से जुड़े होने के, आंखों देखा वाक्या, जिसे मैं पिछले आठ बरस से याद रखे हुए हूं। बिलासपुर के नेहरू चौक से रोज सुबह एक टीवीएस चैम्प वाहन गुजरता, वाहन के सामने हिस्से में प्रेस लिखा हुआ, वाहन के दोनों ओर चार डिब्बे दूध से भरे, लटके हुए, वाहन चलाने वाला सिर पर पगड़ी बांधे, धोती पहना हुआ शख्स। ट्रेफिक के हवलदार को देखता हुआ, मुस्कुराता वह शख्स रोज फर्राटे से वहां से गुजरता रहा। एक दिन हवलदार साहब ने उसे रोक ही लिया और पूछा कि कौन से प्रेस में काम करते हो। उसने कहा- मैं तो दूध बेचता हूं। फिर गाड़ी में प्रेस क्यों लिखाया है ? वो क्या है साहब, आप लोग प्रेस लिखे गाड़ी को नहीं न रोकते हो, इसलिए लिखाया है। उसके बाद हवलदार ने दूधवाले की कनपटी पर तीन चार तमाचे रसीद किए और पकड़कर पुलिस के हवाले किया।
आम तौर पर जब लोगों के बीच जाता हूं तो वे कहते हैं अरे भईया प्रेस वाले हो, तुम्हें क्या, एक फोन करोगे तो घर बैठे नोटों की गड्डी पहुंच जाएगी। पुलिस वाले सलाम ठोकते हैं, अफसर ठंडा, लस्सी पिलाते हैं। अच्छे भले, पहुंच वाले, नेता मंत्री तक आवभगत करते हैं, तुम्हें तो प्रधानमंत्री भी नहीं रोक सकता वगैरह वगैरह। पत्रकार न हुए अलादीन के जिन्न हो गए, चिराग घिसा, जिन्न हाजिर, क्या हुक्म है मेरे आका और मिनटों में आपकी ख्वाहिश पूरी।
हालात तो ये हो गए हैं कि अब जिसे कोई काम न मिले, वो हजार रूपए जमा करके किसी दैनिक अखबार का एजेंट बन जाए, पत्रकार तो वह कहलाएगा ही। साप्ताहिक अखबारों ने तो मुफ्त योजना चला रखी है, पत्रकार बनाने की, भले ही उसके लिए यह सब काला अक्षर भैंस बराबर हो। ऐसा लगता है मानो पत्रकारिता न हुई, पड़ोसी के घर की लुगाई और अपनी भौजाई हो गई।
गाड़ी में प्रेस लिखाने की महिमा से मेरा सुपुत्र भी नहीं बच पाया, एक दिन वह अपनी सायकिल पर कुछ कागज चिपका रहा था, मैंने पूछा, ये क्या कर रहा है ? बालक ने कहा-कुछ नहीं, प्रेस लिखा कागज चिपका रहा हूं। मैंने तनिक आवेश में कहा-तुम कब से प्रेस में काम करने लगे हो ? बालक का जवाब- अरे आप प्रेसवाले हो, तो मैं भी प्रेस वाला हो गया, फलां अंकल का बेटा स्कूल में प्रिंसीपल के सामने रौब जमाता है कि मैं प्रेसवाला हूं, पापा से कहकर तुम्हारे खिलाफ छपवा दूंगा।
मैंने अपना माथा धर लिया। मित्र ने यह सब देखते हुए सलाह दी कि व्यर्थ में अपना दिमाग खराब कर रहे हो, आज के दौर में पत्रकारिता करनी है तो नेताओं की चापलूसी करो, अगर नेताजी घर में भी आराम फरमा रहे हों, तो लिखो कि वे क्षेत्र के दौरे पर हैं। क्षेत्र के गुंडा, मवाली और माफिया अगर आतंक भी मचा रहे हों तो लिखो कि शहर में सब शांतिपूर्ण चल रहा है। अफसरों के फोटो खींचकर उन्हें प्रभावित करो, तो कुछ दक्षिणा भी मिलेगी। अपना हिसाब किताब देखो, मजे में रहो।
मेरा खयाल है कि यह प्रजाति भी तीन तरह की हो गई है, एक-जिन्हें लिखना, पढ़ना आता है, दो-जिन्हें लिखना, पढ़ना और चापलूसी करना आता है, तीन-जिन्हें हिन्दी का ककहरा तक नहीं आता, लेकिन चमका-धमका कर वसूली करने में माहिर हैं। खुद ही तय कीजिए, आप किस श्रेणी में खरे उतरते हैं ?

मोबाईल की महिमा अब चहूं ओर फैलने लगी है, पहले मोबाईल कुछ खास लोगों के पास दिखता था, अब अंबानी जी के करलो दुनिया मुट्ठी में, के दावे को पूरा करते हुए चायवाले, रिक्शेवाले, ठेला-ठप्पर वाले के हाथों में भी पहुंच चुका है। इसके अलावा हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे को बुलंद करते हुए चायना ने सस्ते मोबाईल की सुविधा भी हमें उपलब्ध करा दी है। देवयुग की कल्पना कलयुग में साकार हो रही है, संसाधन जरूर बदले हैं पर काम वही है, जैसा कि पुरानी धार्मिक फिल्मों में देखने को मिलता है। देवयुग के लोग मानसिक तरंगों के संप्रेषण से एक दूसरे से संवाद कर लेते थे। इस युग में मोबाईल नामक अजूबे ने यह काम कर दिखाया है। महाभारत के युध्द का वर्णन करते हुए जिस तरह संजय, महाराज धृतराष्ट्र को आंखों देखा हाल सुनाते हैं (जिसे आजकल लाईव शो कहा जाता है) कुछ उसी तरह की तरक्की हमारे देश में भी हो चुकी है।
एक सज्जन ऐसे ही सड़क के किनारे खड़े अपने साथी से बतिया रहे थे, हां भाई सुनाओ क्या हालचाल है। हां हां, अरे नई यार, वो क्या है कि मैं अभी बेबीलॉन हॉटल में हूं। बस ऐसे ही, मन हुआ तो सोचा कि यहां का भी मजा ले लूं, बाद में मिलता हूं। उनकी बातों से मैं चौंका, ये क्या भाई आप तो यहां घड़ी चौक पर हो ? उसने जवाब दिया, अरे छोड़ न भाई, ये सब फंडा जरूरी है। अपने बाप का क्या जाता है ऐसा बोलने में। मोबाईल से किसी को पता थोड़े चलेगा कि अपुन किधर है।
लोकल ट्रेन से शाम को घर लौटते वक्त भी ऐसा ही वाक्या हुआ। एक युवक अपने किसी भाई-बंधु से बतिया रहा था, हैलो, हैलो, हां भाई मैं तो मुंबई जा रहा हूं, प्लेन में हूं, क्या करूं जरूरी काम आ गया था। एकाध हफ्ता लग जाएगा, फिर फोन करूंगा, टावर नहीं आ रहा हैलो, हैलो, है....। मैंने उसकी बातों को सुनने के बाद पूछा - भाई आप तो ट्रेन में हो, फिर अपने साथी को प्लेन में होने की बात क्यों कह रहे थे। युवक पहले तो कसमसाया, फिर तुरंत खुद को संभाल लिया - क्या है भाई साहब, यूनिटी में रौब जमाना पड़ता है। अगर कह देता कि लोकल ट्रेन में हूं तो मेरे स्टेटस का क्या होता। इसलिए करना पड़ता है।
एक जानकार मित्र से अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उसके घर पहुंचा, तो वह भी मोबाईल से कान लगाए हुए कुछ भुनभुना रहा था। मुझे देखकर वह थोड़ा और दूर जाकर कोने में बतियाने लगा। तीन चार मिनट बाद बातचीत खत्म कर वह मेरी तरफ आते हुए बोला, और यार, सुना क्या हाल चाल है, वो थोड़ा सीएम साहब का वर्जन लेने जाना था, बॉस का फोन था, उसी से बात कर रहा था, तू बता क्या बात है।
मैंने कहा - भाई साहब, जिसे देखो वह मोबाईल कान से लगाए भुनभुनाता हुआ मिलता है। फिर सबसे बड़ी बात ये है कि लोग इस पर झूठ बोलने से भी नहीं चूकते। रहेंगे सड़क पर और बताते हैं प्लेन में हैं। ये सब क्या है यार मेरा तो सिर चकराने लगता है।
मित्र ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा- तू भी न यार, बिना मतलब की बातों और लोगों के पीछे पड़ जाता है। भाई जब कलयुग में ये सुविधा हासिल हो गई है कि तुम आराम से बिना किसी पचड़े के झूठ बोल सको, तो इसमें हर्ज क्या है। मोबाईल का सही उपयोग करना तुम्हें आता नहीं।
इसी बीच उसने अपनी अर्धांगिनी को मोबाईल पर ही आर्डर देकर चाय, बिस्किट व पकौड़े मंगा लिए थे।
अपने ज्ञान को मुझे परोसते हुए मित्र कह रहा था - देख भई, कम्यूटरीकृत और मोबिया फोबिया से आधुनिक होते युग को तुझे स्वीकारना पड़ेगा। ये तो वरदान है, तू जब चाहे अपने बॉस से झूठ बोल सकता है, बीवी के बेलन खाने से बच सकता है, कर्जदारों के तगादे से भी राहत पा सकता है, एकाध एक्स्ट्रा घर बसा सकता है, दो चार को अपने पीछे घुमा सकता है, और तो और, अपना स्टेटस भी बढ़ा सकता है।
तभी उसके मोबाईल की घंटी बजी, फोन उठाकर बातचीत करते हुए मित्र ने कहा, ओ हो, सर, दरअसल पेट में बहुत मरोड़ उठ रही है, डाक्टर को दिखाने जा रहा हूं, उसके बाद आफिस आ पाउंगा, माफ कीजिए सर, ओ आउ, आह.....। फिर उसने मोबाईल आफ कर दिया।
मैंने कहा- अरे यार, अभी तो तू मजे से पकौड़ी खा रहा है, चाय की चुस्की ले रहा है। फिर ये सब क्या है ?
मित्र ने तनिक नाराजगी जताते हुए कहा - अरे यार, तू बिलकुल सुधरेगा नहीं, ये सब किए बिना गुजारा होना संभव नहीं।
मैंने अपनी चाय खत्म करते हुए मित्र से विदा ली और बस में बैठ गया घर लौटने के लिए। बस की सामने वाली सीट पर बैठी युवती कान से मोबाईल चिपकाए धीरे धीरे बातें कर रही थी। दो मोबाईल हाथ में, एक कान पर था। आधे घंटे की यात्रा के दौरान उसके तीनों मोबाईल पर तकरीबन दस बार फोन आए। मैं हैरान था कि आखिर यह जमाने को क्या हो गया है। मोबाईल फोबिया के गिरफ्त में आकर हम अपनी संस्कृति, व्यवहार और आचार-संहिता को भी भूलते जा रहे हैं। इसके साथ ही प्रकृति से खिलवाड़ करने से नहीं चूक रहे हैं। मोबाईल तरंगों के चक्कर में आसपास घूमते, कलरव करते पक्षी हमसे दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि अब तो मोबाईल की रिंगटोन भी कोयल की तरह कूकती है तो हमें उसकी क्या जरूरत ? जय हो मोबाईल देवता की, मोबिया-फोबिया ने जब धीरे धीरे देशभर में अपना महानता का प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है तो मैं उसकी जद में आने से कैसे बच सकता हूं ?

जादू, जिसका नाम सुनते ही लगता है कि कोई चमत्कार होने वाला है, हो गया है, फिर कोई मदारी आ गया खेल तमाशा करने। वैसे भी देश में रोजाना कम खेल-तमाशे नहीं हो रहे हैं, अख्खी जनता यानि भले मानुष रोजाना नए नए घपले घोटालों के खेल, तमाशे और खुलासे से चमत्कृत हो रहे हैं, यह क्या किसी जादू से कम है ?
सुबह-सुबह जब दफ्तर के लिए निकला तो रास्ते में बहुत से लोग एक घेरा बनाकर खड़े हुए दिखे। मैंने सोचा कि दफ्तर के बाकी बंधु लोग जब क्रिकेटेरिया के बुखार में तपे हुए रोजाना टाईमपास कर रहे हैं, तो मैं क्यों पीछे रहूं, वैसे भी हम लोगों को एक दूसरे की नकल करने की आदत जो ठहरी। लिहाजा मैं भी वहां पहुंच गया। गोल घेरे के अंदर एक मदारी हाथ में डमरू लिए खड़खड़ाता हुआ बंदर को नचा रहा था और कह रहा था, बच्चा लोग, भाई लोग, माई लोग और ताई लोग, सब अपना हाथ खुला रखने का, काहे कि देश में अख्खा भ्रष्टाचार मतलब चमत्कार बढ़ गिया है, सबकुछ खुल्लमखुल्ला होने का। लोग गईया माता का, भैंस भाभी का पूरा का पूरा चारा निगल जाता हे, देश का गरीब-गुरबा जनता मानुष लोगों का करोड़ो रूपया निगल जाता हे, उसका बावजूद खुल्लमखुल्ला छाती ठोंक के घूमता हे, ये कोई चमत्कार से कम हे क्या। अबी बाबा लोग नया-नया आसन सिखाता हे, 120 किलो फूल टू फटाक वजन, भारी भरकम तोंद लेके जाता हे, उसके बाद फूं फा करता हे, सिर के बल उलटा पुलटा करता हे, बंदर के माफिक उछलता हे, फिर कुछ महीना में फिटफाट हो जाता हे। ऐसा चमत्कार दिखाने वाला बाबा अबी एक नया आसन खोजा है भाई लोग, उसका नाम है, उसका नाम है, उसका..........
भीड़ में खड़ा एक युवक झल्लाया, अरे, कुछ आगे भी तो बोल।
मदारी ने कहा - उसका नाम हे वोटासन, जिसके सामने पूरा जनता लोटासन करता हे, बच्चा लोग ताली बजाओ, बुजुर्ग बाबा लोग अपनी जेब में रखा रूमाल निकालो, माथे का पसीना पोंछ डालो ओर गबरू जवान इसको ठीक से समझ लो, नौकरी नईं मिले तो आड़ा बखत में वोटासन का मंतर काम आएगा।
मदारी ने आगे कहा - अख्खा भाई लोग को ये तो मालूम होगा कि वोटासन का मंतर जानने वाला मंतरी, संतरी, नेता लोग पांच साल में एकीच बार अख्खा जनता के सामने लोटासन करता हे। बाद में पांच साल तक सबको हमरा ये चिंपू बंदर के जइसा नचाता हे, चल रे चिंपू जरा नाच के बता।
मदारी फिर बोला - ऐसा ही वोटासन सिखाने के वास्ते बाबाजी अख्खा इंडिया घूम घाम रहा हे। जहां भी जाता हे, उछलकूद करता हे, फूं फां करके पेट को फुलाता पिचकाता हे, फिर अख्खा मानुष जन को वोटासन का पट्टी पढ़ाता हे। वोटासन का बहूत बड़ा फायदा ये है कि इसको सीखने के बाद किसी से डरने का जरूरत नईं। एक बार नेता, मंतरी, संतरी बन गिया, तो समझ ले पूरा जिनगी भर ऐश करेगा। आने वाला चुनाव में ऐसा ईच बाबाजी का चेला चपाटी लोग वोटासन के लिए लोटासन करने अख्खा लोग के पास जाएगा। चलो अब जल्दी से अपना जेब में हाथ डालो, नोट पानी निकालो और तमाशा खतम करो। रोज रोज का तमाशा देखके इधर अपुन का बंदर भी थक गिया हे, इसको थोड़ा सा आराम करने को मांगता।
एक घंटे टाईमपास के बाद वहां से दफ्तर जाते वक्त मैं यही सोच रहा था कि देश के हालात और मदारी के खेल तमाशे में कोई खास अंतर नहीं रहा। मदारी की तरह नेता, मंत्री अपने अधिकारों और सुविधाओं का डमरू खड़खड़ाते हुए आम जनता को बंदर समझकर नचाते हैं, उसके नाम पर बटोरे हुए पैसे से तमाम ऐशो आराम हासिल करते हैं, राज करते हैं। वोटासन के जादू का मतलब अब समझ आने लगा था। आखिर वोटासन किसी भारी भरकम चमत्कार से कम है क्या ? जनता पांच साल तक जिन्हें पानी पी पीकर कोसती है, चुनाव आते ही सब कुछ भूलकर फिर से वोटासन के फेरे में पड़ जाती है और जनता, मदारी के बंदर की तरह आजीवन, सिर पर दोनों हाथ रखकर नाचती रहती है। जय हो वोटासन बाबा, तेरी महिमा अपरम्पार है।

सूनी सड़क पर सुबह-सुबह एक काफिला सा चला रहा था, आगे-आगे कुछ लोगअर्थी लिए हुए तेज कदमों से चल रहे थे। राम नाम सत्य है के नारे बुलंद हो रहे थे।शहर में ये कौन भला मानुष स्वर्गधाम की यात्रा को निकल गया, पूछने पर कुछ पतानहीं चला। मैने एक परिचित को रोका, लेकिन वह भी रूका नहीं। मैं हैरान हो गया, हरचीज में खबर ढूंढने की आदत जो है, तो मैने अपने शहर के ही एक खबरीलाल कोमोबाईल से काल करके पूछा। उसने कहा घर पर हूं, यहीं जाओ फिर आराम सेबताउंगा। मेरी दिलचस्पी और भी बढ़ती जा रही थी। आखिर शहर के भले मानुषों कोहो क्या गया है जो एकबारगी मुझे बताने को तैयार नहीं कि धल्ले आवे नानका, सद्देउठी जाए कार्यक्रम आखिर किसका हो गया था। फिर भी जिज्ञासावश मैं खबरीलाल केघर पहुंच गया। बदन पर लुंगी, बनियान ताने हुए खबरीलाल ने मुझे बिठाया औरअपनी इकलौती पत्नी को चाय-पानी भेजने का आर्डर दे दिया। मैंने कहा, अरे यार, कुछ बताओ भी तो सही, तुमइतनी देर लगा रहे हो और मैं चिंता में पड़ा हुआ हूं कि कौन बंदा यह जगमगाती, लहलहाती, इठलाती दुनिया छोड़गया। खबरीलाल ने कहा थोड़ा सब्र कर भाई, जल्दी किस बात की है।

फिर उसने गला खंखारकर अपना राग खबरिया शुरू किया, क्या है मित्र, दरअसल देश में इन दिनों महंगाई,भ्रष्टाचार, घोटाला, हत्याएं, लूट अब घर के मुर्गे की तरह हो गए हैं। ऐसा मुर्गा, जिसकी दो-चार नहीं, हजार टांगें हैं,कद भी बहुत बड़ा है, सिर पर मन को मोहने वाली कलगी भी लगी है, लेकिन बेचारा पोलियोग्रस्त है, यानि मजबूरहै। अब इस हजार टांग वाले मुर्गे की एक-एक टांग खींच-खांचकर कई घोटालेबाजे, इसकी बलि लेने में लग गए हैं।पहले तो इसे काजू, किसमिस, ब्रेड, बिस्किट, चारा, दाना सबकुछ खिलाया, अब इसका मांस नोचने की तैयारी है।
मैंने कहा, मुर्गे की किस्मत में कटना तो लिखा ही होता है। अब इसमें बेचारे घोटालेबाजों का क्या दोष।
खबरीलाल ने फिर से अपना ज्ञान बघारते हुए कहा, तुम समझ नहीं रहे हो। अरे भाई, मुर्गे को पालने वाली मालकिन के बारे में तुम्हें पता नहीं है। उसने इस कलगी वाले मजबूर मुर्गे को क्यों पाला ? यह मुर्गा लड़ाकू मुर्गों जैसा नहीं है। यह तो बिलकुल सीधा-सादा है, इसने अब तक घर के बाहर दूर-दूर क्या, आसपास की गंदगी पर फैला भ्रष्टाचार का दाना भी कभी नहीं चुगा। मालकिन कहती है कि बैठ जा, तो बैठ जाता है, फिर कहती है कि खड़े हो जा, तो खड़े हो जाता है। बेचारा जगमगाती दुनिया में हो रहे तरह-तरह के करम-कुकर्म से दूर है। लेकिन क्या करें, मालकिन के पड़ोसियों की नजर इस पर कई दिनों से गड़ गई है। इसलिए बिना कोई अगड़म-बगड़म की परवाह किए इसे निपटाने के लिए प्रपंच रचते रहते हैं। इतना स्वामीभक्त है कि एक बार इसके साथी मुर्गे ने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है, तो पता है इसने क्या कहा। इसने कहा कि मेरा नाम तो सुंदरलाल है, फिर भी मालकिन से पूछ कर बताउंगा, बताओ भला, कोई और होता तो इतना आज्ञाकारी होता क्या ? अब ऐसे मुर्गे को भाई लोग बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
मैंने झल्लाते हुए कहा कि अरे यार, मैं उस अर्थी के बारे में पूछने आया था और तुमने मुर्गा, मालकिन, घोटाला कीकहानी शुरू कर दी।
उसने हाथ उठाकर किसी दार्शनिक की तरह कहा, अरे शांत हो जा भाई, यह सब उसी अर्थी से जुड़ी कहानी का हिस्सा है। असल में गांव, शहर, महानगर के भले लोग, रोज-रोज घोटालों से तंग आ चुके हैं। अब घोटाले हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे, तो भलेमानुषों ने सोचा कि जब घोटाला, भ्रष्टाचार करने वाले इतनी दीदादिलेरी से इतरा रहे हैं, खुलेआम घूम रहे हैं, निडर हैं, बेधड़क हैं, शान से मूंछें ऐंठ रहे हैं, तो हम क्यों स्वाभिमानी, ईमानदार, सदाचारी, देशप्रेमी बने रहें। इसीलिए अपना यह सुघ्घड़ सा चोला उतारकर उसकी अर्थी निकाल दी है और उसे फंूकने के लिए शमशान घाट गए हैं। शाम को श्रध्दांजली सभा भी है, तुम चलोगे ?
मैंने खबरीलाल को दोनों हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर कहा कि धन्य हो श्रीमान, आप और आपका ज्ञान दोनों हीसत्य है।
खबरीलाल ने कहा, याद रखो मित्र कि जीवन का अंतिम सच, राम नाम सत्य ही है। जाने कब, इससीधे-सादे, कलगीवाले, आज्ञाकारी मुर्गे का भी राम नाम सत्य हो जाए ?

देश में करोड़ों बेरोजगार तमाम डिग्रियां लिए नौकरी केलिए मारे-मारे फिर रहे हैं, पर चिपकू भाई को नौकरी मिलगई, जिसके लिए तो डिग्री की जरूरत थी और हीसिफारिश की, ऐसी नौकरी की उसके घरवाले क्या,बाप-दादे भी उम्मीद नहीं रखते थे। शानो-शौकत बढ़ गई,हाथों में चमचमाती सोने-हीरे की अंगूठी, महंगे जूते,सूट-बूट, टाई उस पर खूब फबने लगी थी। इस महोदय कापरिचय तो जरा जान लें, आपके आसपास ही मिल जाएगा,इसे चमचा कहते हैं, चमचा यानि जिसके बिना खाने काएक निवाला भी मुंह के अंदर जाए, जिसके बिना नेतापानी भी पी सके। ऐसी ही नौकरी चिपकू भाई ने जुगाड़कर ली थी। अफसरों पर रौब कि उनका ट्रांसफर करा देंगे,छुटभैयों पर रंग जमाना कि उन्हें फलां मोहल्ले के वार्डपार्षद की टिकट दिला देंगे, बेरोजगारों के तो वे मसीहा बनगए थे, जहां से भी गुजरते नौकरी पाने की चाह में भटक रहे बेरोजगार नब्बे अंश के कोण की मुद्रा बनाकर सलामकरते थे। ऐसी किस्मत तो आज की तारीख में किसी राजे-महाराजे की भी नहीं हो सकती थी।
यह नौकरी आसानी से नहीं मिलती है, इसके लिए भी हुनर होना चाहिए, ठीक वैसा ही, जैसा देश की सबसे बड़ीकार्पोरेट दलाल राडिया में है, हर्षद मेहता में था, चार्ल्स शोभराज, नटवरलाल भैया में था, जो खड़े-खड़े ही,बातों-बातों में किसी को, कुछ भी बेच सकते हैं। ऐसी हिम्मत और दिगाम का खजाना हर किसी के पास तो होतानहीं। इसलिए चिपकू भाई की किस्मत खुल गई थी। इसके पीछे की हकीकत जानने के लिए मेरे अंदर काखबरनवीस कुछ दिनों के लिए जागा, तो पता चला कि वाह भैया, ये तो हर्रा लगे फिटकिरी, रंग चोखा ही चोखा।चिपकू भाई ने कुछ खास नहीं किया बस फार्मूला चमचागिरी को अपना लिया और अब वह लोगों की नजरों में बहुतबड़ा, पहुंचवाला हो गया। हुआ यूं कि किसी नटवरलाल ने चिपकू भाई को एक आईडिया दिया और वे उस पर अमलकरने लग गए। जब भी किसी नेता का जनमदिन होता, चिपकू भाई पहुंच जाते बधाई देने, बातों ही बातों में तारीफोंके इतने पुल बांधते कि नेताजी उसके कायल हो जाते, यह फार्मूला शहर से शुरू हुआ, फिर प्रदेश से गुजरता हुआदेश की राजधानी तक पहुंच गया और चिपकू भाई साहब कस्बे से उठकर राजधानी के एक नेताजी के खासमखासहो गए। नेताजी की पत्नी को भले ही याद हो कि उनका जनमदिन कब है, मगर चिपकू भाई बकायदा, नियततारीख को फूलों का गुलदस्ता लिए सुबह 7 बजे से ही नेताजी के दरवाजे पर पहुंचकर इंतजार करते थे, जब तकनेताजी को बधाई दें, तब तक दरवाजे से हटते नहीं थे। बताइए भला ऐसा कितने लोग कर सकते हैं और अगरनहीं कर सकते तो बेरोजगार तो रहेंगे ही। नेताजी के प्रति चिपकू भाई के समर्पण को हम चाहे कितनी भी गालियांदें, लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि इसके पीछे कितने फायदे हैं ? यूपी वाली मैडम के जूते पोंछने वाले,चरणस्पर्श करने वाले भाई-बंधुओं को इसका कितना फायदा मिलेगा, इसकी कल्पना भी किसी ने की है ? नहीं ,अपने राहुल बाबा के ही जूते उठाकर पीछे-पीछे घूमने वाले चव्हाण जी को भूल गए क्या ? तो मिला जुला नतीजायही है और समझदारी भी कि फार्मूला चमचागिरी हर युग में सुपरहिट है। इसे अपनाईए, खुद भी सुख पाईए, दूसरोंको भी सुख दीजिए। और अंत में एक खास बात, जिसका भले ही आपको विश्वास हो, चिपकू भाई इस फार्मूले सेअब एक लालबत्ती भी पा चुके हैं, साथ में एक सुरक्षागार्ड भी, गन लिए हुए। यह सुनकर जोर का झटका धीरे से तोनहीं लगा आपको ?

कांदादेव अर्थात प्याज देवता, मराठी मानुष बोले तो कांदा और छत्तीसगढ़िया में गोंदली, अँगरेजी में ओनियन, सिंधी बोली में बसर वगैरह-वगैरह। रोज-रोज कांदादेव संबंधी लेख, व्यंग्य, कविता, कहानी, गजल, मुहावरे सुन-सुन के इसकी महिमा से मैं भी नहीं बच पाया। इकलौती पत्नी ने भी ताना मार ही दिया कि बड़े कलमकार बने फिरते हो, पर प्याज देवता के बारे में लिख नहीं सकते। चलो अच्छा ही हुआ कि इसके दर्शन कई-कई दिन बाद हो रहे हैं, नहीं तो बिना मतलब के ये कांदादेव हमारे आंखों में आंसू ला देते थे, अब कुछ दिनों तक छुटकारा तो मिला। मैने कहा-अरी भागवान, प्याज महाराज भी अब देवतातुल्य हो गए हैं। क्योंकि गरीब तो इसे खरीद नहीं सकता और अमीर इसे अपने किचन में सजा कर रख रहे हैं। इससे भी बड़ी खासियत है प्याज की महानता की, जो सरकारों को हिला देता है, सरकारों को गिरा देता है, वह विपक्षी पार्टियों के लिए भी देवता है और सत्तासीन सरकार के लिए भी। जो कांदादेव किचन में नारी को बिना किसी कारण अश्रुपूर्ण कर देता है, उसकी महिमा अब अपने देश से निकलकर विदेश तक पहुंच गई है। अब वही कांदादेव महाराज चाईना से यहां, हमारे अखण्ड भरतखण्डेः देश में पधारने लग गए हैं अर्थात सिंग इज किंग की सरकार हिंदी-चीनी भाई-भाई को चरितार्थ करने लग गई है। जब एक भाई संकट में हो तो दूसरे भाई को उसकी मदद करनी ही चाहिए, यही धर्म है और इसी धर्म के पालन में अब चीन भी लग गया है। वैसे भी चाईना मोबाईल अधिकतर युवा हाथों में पहुंच ही चुका है, बच्चों को चाईनीज ट्वायज यानि खिलौने तो लुभा ही रहे हैं। चाउमीन अब होटलों, रेस्तरां से आगे बढ़कर गांव के ठेलों में भी पहुंच गया है, जिसके स्वाद से गांव के भोले-भाले टेटकू, समारू, मंटोरा भी अब अछूते नहीं रहे, बालीवुड के अक्की भैया यानि अक्षय कुमार भी चांदनी चौक टू चायना तक धूम मचा ही चुके हैं। तो अब हम कौन होते हैं चाईना की महिमा से इंकार करने वाले। हमें भी चाईना ओनियन यानि चीनी प्याज को स्वीकार, अंगीकार करना ही पड़ेगा। चीनी प्रधानमंत्री जिआबाओ और भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हाथ मिलाने से आगे अब गले मिलने और दिल मिलाने को भी तैयार हैं। सुना है कि 11 टन चाईनीज कांदादेव महाराज हमारे देश में पधार चुके हैं। मेरी षुभकामना है कि यह 1100 नहीं, 11 करोड़ टन तक पहुंचें और हम जैसे कलमघिस्सूओं तक इसकी खुशबू आ सके। मैं तो अब यह भी सोचने लगा हूं कि चाईनीज भाईयों ने हमारे कान, मुंह, पेट तक पहुंच बना ही ली है, अगर नामकरण संस्कार पर कब्जा कर लिया तो फिर आने वाले समय में बच्चों के नाम झुंग, वांगड़ू, साओ, पाओ, तिन सूक रखने पड़ जाएंगे। जय हो चाईनीज की, जय हो जिआबाओ की और जय हो मनमोहन सिंह की। अथ श्री कांदादेवः कथा समाप्त।

नया युग आ गया है, अरे भई पुराना जब और पुराना होगा तो नया नया युग तो आएगा ही, नए पैंतरे, नया दांव, नई उठापटक, और तरीके भी नए-नए। पुराने दौर में फिल्मों की नायिका गाती थी फूल तुम्हें भेजा है खत में ...क्या ये तुम्हारे काबिल है, अब की हीरोईन डांस कम एक्सरसाईज करते हुए सीधे किस पर आ जाती है, ओ बाबा लव मी, ओ बाबा किस मी। न फूल ढूंढने की जरूरत न खत लिखने की झंझट, मैगी नूडल्स की तरह, फटाफट तैयार, बस दो मिनट। बीच में न आशिक से मिलने के सपने न ही बाबुल से कोई बहानेबाजी, कि मैं तुझसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने। पहले बाग-बगिया, खेत-खलिहान, छत के चैबारे और गलियों के फेरे गुलजार थे। अब पब, रेस्तरां, डांस फ्लोर, पार्क और माॅल में यह जलवा रौषन होता है। सब कुछ नया-नया है, तुरंत, फटाफट। किशोर कुमार का गाना तब की बजाय अब तर्कसंगत लगता है नाच मेरी जान फटाफट-फट, ये जमाना है दीवाना नया फटाफट-फट। नया युग और भी ज्यादा खुला-खुला सा है। क्यों न हो लोकतंत्र में जब खुलापन बढ़ता जा रहा है तो ज्यादा खुला होना सुहाता भी है। पब, रेस्तरां, माॅल हर जगह खुलापन है। खुलापन का मतलब गलत नहीं समझना, मेरे लिखने का मतलब स्वतंत्रता है। अब लोग इंसाफ के नाम पर गाली गलौज और अश्लील टिप्पणियां सुनने में ज्यादा आनंद महसूस करते हैं, जैसा राखी का इंसाफ में दिखता है। हाॅट स्वीटीज और हैंडसम ब्वायज को खिलखिलाते हुए माॅल में देखकर दिल तो जलता ही है न, कि कहां वो जमाना जब हम सुबह से रात तक अपने दिल की प्यास मिटाने, दीदार को तरसते थे और उसके घर के सामने से कई फेरे लगाते थे और दिल गुनगुनाता था बिन फेरे हम तेरे। अब नया जमाना देखिए मोबाईल उठाया मैसेज किया, कि फलां माॅल में इतने बजे मिलेंगे। न माशूक के बाप को पता, न ही किसी भाई-बंधु को खबर और इठलाती हुई माशूक टाप-स्कर्ट में नियत समय पर माॅल में उपलब्ध, जैसे आंगनबाड़ी का रेडी टू ईट, यानि सबकुछ तैयार। न कोई डर न कोई भय। लोकलाज का जमाना ही नहीं रहा, क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।एक दिन हमें भी मिल गया माल जाने का मौका, पहुंचे तो विशाल इमारत में रौनक शुरू थी, लोग आ रहे थे जा रहे थे, कुछ हसीन चेहरे हर दो तीन मिनट में नजर आ ही जाते थे। टाप-स्कर्ट, लेगीज-कुर्ता, सलवार सूट, जींस-टी शर्ट आदि-आदि में लकदक हुस्नो-हसीनाएं और मजनूओं की जमात यहां-वहां तफरीह करते हुए टहल रहे थे। कुछ लोग एक दूसरे को छेड़ते हुए चल रहे थे। अरे यार, वो तेरी वाली अभी तक नहीं आई। मैसेज तो किया था न। यस माई डियर, मैसेज तो किया था, पर वो बोल रही थी कि कहीं और भी पार्टी में जाना था, अरे वो देखो आ रही है। हम भी उनकी बातों का मजा ले रहे थे। साथ ही सोच रहे थे कि हमारे जमाने में कितना संघर्ष करना पड़ता था प्रियतमा की एक झलक पाने को। ऐसे में बीस बरस पहले जन्म लेना अखर रहा था। अब पैदा होते तो हम भी मजे ही करते। हे भगवान, तूने ये कैसी बेइंसाफी की मेरे साथ। फिलहाल हमने भी माल में अपना दिल बहलाया, क्या करते, मर्द और घोड़ा कभी बूढ़ा तो होता नहीं, यही सोचकर खुद को तसल्ली दी। उसके बाद माल के रेस्टोरेन्ट में एक हल्के अंधेरे वाले कोने की सीट पर बैठकर उन्हीं युवा जोड़ों ने क्या-क्या किया, यह लिखने में मुझे शर्म आ रही है, अरे भाई आखिर मुझमें तो थोड़ी-बहुत शर्म बाकी तो है न। लेकिन समझ जाईए कि उन लोगों ने जवानी का भरपूर आनंद लिया। लौटते वक्त बस यही खयाल आ रहा था कि जिस खुलेपन के लोग हिमायती होने लग गए हैं, उससे परिवार के सदस्यों के बीच की मर्यादा शून्य तो हो रही है। टीवी चैनल्स पर परोसी जा रही अश्लीलता अब शर्म का विषय रही नहीं, इसलिए मां-बाप, बच्चे साथ में बैठकर कुछ भी देख सकते हैं, देखते ही हैं। क्योंकि हमारे मशहूर फिल्म अभिनेता आमिर खान ने भी 3 इडियट में बलात्कार शब्द का इतनी बार प्रयोग करवाया कि फिल्म देखने वाले 8-10 बरस के बच्चे भी इससे वाफिक होने लगे हैं। आखिर उन्हें भी मालूम होना चाहिए कि जिस देश में लोग खुलेपन के नाम पर संस्कृति से बलात्कार करने में लगे हुए हैं, वह चीज क्या है। इस उम्र में जान जाएंगे तभी तो भविष्य में सोच समझकर कदम उठाएंगे। सोच में डूबा हुआ मैं अचानक ही धरना दे रहे हड़तालियों की तरह चिल्ला पड़ा, माल संस्कृति जिंदबाद, माल संस्कृति जिंदाबाद। बाईक चला रहा मित्र हड़बड़ाया अरे क्या कर रहा है यार, पागल हो गया है क्या। सच तो यही है कि नए युग की नित नई संस्कृति, संस्कृति की दुहाई देने वाले हम जैसों को पागल करके ही छोड़ेगी ।

फिलिम देखने का अपुन को बहोत शौक हे, पढ़ने के वास्ते मां-बाप स्कूल भेजता था, तो अपुन उधर से मास्टर को झोंका देकर कल्टी कर लेता और पहोंच जाता था सिनेमा हाल, 70 एमएम का सिल्वर स्क्रीन पर फिलिम देखने के वास्ते, बहोत मजा कियेला। अब तो फिलिम 15 इंच से लेकर 30 इंच का बुध्दु बक्सा पर आकर अटक गयेला हे। फिलिम भी दिखाता हे तो 3 घंटे का फिलिम में 30 बार ब्रेक करके दिमाग को क्रेक कर देता हे, और मल्टीप्लेक्स में जाना मतलब फोकट फालतू में टाईमपास करना। इससे भला तो आदमी सिरिफ एसी हाल में बेठकर दो घंटा का नींद मार ले। काहे कि ऐ नया फिलिम तो अपुन को पचता नईं, अपने आमिर भाई का फिलिम आया 3 ईडियट, तो बहोत तारीफ सुना, मोहल्ले वाला रम्मू, गिल्लू, खोटे और ताम्बू तो पहला ईच शो में देखके आएला हे। बताया के क्या एक्टिंग कियेला हे बाप, मजा आ गयेला। अपुन भी सोचा के चलो, इतना बिंदास फिलिम को देखने के वास्ते तो जाना ईच पड़ेंगा। फिर पहुंच गिया मल्टीप्लेक्स। टिकट लेकर अंदर अपनी कुर्सी पे जम गयेला बाप। फिलिम चालू हुआ, तो अगड़म-बगड़म कुछ समझ में आयेला, कुछ में दिमाग फिर गयेला। आमिर भाई का धांसू एन्टरी दिखाया, के पहेला ईच सीन में एक बांगड़ू को सूसू करने वाला आयटम में करंट मार दियेला। ये क्या बाप, अईसा तो कबी सोचा भी नईं। अब आगे देखेला तो ये क्या, लेटरिन रूम में आमिर भाई, अगल में षरमन भाई, बगल में माधवन भाई एक दूजे से बातां करते दिखाया। गाना चला तो आल-इज-वेल, ये क्या पिछवाड़ा हिला-हिला के बोलता आल-इज-वेल, आल-इज-वेल, अपुन माथा पकड़ लिया, क्या बाप पिछवाड़ा दिखाने से कैसे वेल हो जाएगा, फिर याद आया, के अख्खी दुनिया का अधिकतर बांगड़ू-लफाड़ू पिछवाड़ा के पीछे ईच तो पागल हे, पिछवाड़ा देखने के वास्ते कितना जुगाड़ करना पड़ता हे, दिख जाए तो आल-इज-वेल तो हे न भाई। येही च दिखाने को सोचा आमिर भाई ने। अब जईसे-तईसे तीन घंटा बिताने को टाईमपास करता रहा, पर आखिर में ये क्या, आखिरी सीन तो धांसू, जोरदार, जब चतुर भईया बोलता हे, जहांपनाह तुसी ग्रेट हो, तोहफा कूबूल करो, और अपना पिछवाड़ा उठा-उठा के कूदता हे। भाईरे फिलिम बहोत बढ़िया, बार बार पिछवाड़ा दिखाके आल-इज-वेल करके दुनिया को आमिर भाई ने कई लोगों के पिछवाड़े का दरसन कराया, उसका खातिर आमिर भाई को बधाई। अब फिलिम लगने वाला हे, मिलेंगे-मिलेंगे। अपुन सोचा के ये फिलिम वालां को क्या हो गयेला हे, फिलिम के लिए नाम का टोटा पड़ गयेला हे क्या, जो मिलेंगे-मिलेंगे नाम रख दिया, अब लफंगे-परिंदे भी बन रिया हे, फिर बनेगा दौड़ेंगे-भागेंगे, चढ़ेंगे-कूदेंगे। अरे अपुन से पूछ लेता फिलिम वाले तो अपुन एक से एक फिलम का टाईटल बता देता, कि पियक्कड़ भाई लोगन के खातिर भी फिलिम बनाने का पियेंगे-खाएंगे, दादा-भाई लोगन के लिए बनाने का मारेंगे-पीटेंगे, हड्डी तोड़ देंगे, छुपा-छुपी करके लाईन मारने वालां खातिर बनाने का रात में मिलेंगे-हिलेंगे, अउर क्या बताएगा बाप, अब सुबे उठ के दफ्तर जाने का तेयारी करने का, नईं तो घराड़ी का बेलन पिछवाड़े पे पड़ने का, के अख्खा दिन फिलिम-फिलिम करता हे, कमाएगा नईं तो खाएंगा क्या। दफ्तर में बाॅस भी पिछवाड़ा में लात मार के अपुन को कल्टी कर देगा कि चल निकल ले इधर से। बाकी सब ठीक, पर एक बात अपुन जरूर बोलेगा कि आमिर भाई वाकई ग्रेट, अख्खी दुनिया को पिछवाड़ा दिखाया हिला-हिला के दिखाया, घुमा-फिरा के दिखाया, पर बच्चा लोग क्या, माई लोग क्या, भाई लोग क्या, किसी ने नई चिल्लाया कि ये अश्लील फिलिम हे। समझ में आ गयेला हे बाप, के दुनिया भी तो येईच देखना मांगता हे।

दशहरा फिर आ गया, हर साल आता है, बरसों से आ रहा है, आता रहेगा। शुरू हो जाता है पांच दिन पहले से वही खटराग, मोहल्ले और घर के बच्चों की भागदौड़, लकड़ी लाओ, पेपर लाओ, पटाखे लाओ, रावण बनाओ। हर बार वही दस सिर लिए, उस पर एक गधा विराजे हुए, साथ में कुंभकरण मेघनाद, दस फुट, बीस फुट, पचास फुट, सौ फुट, जाने कितने फुट का रावण। पास जाकर देखो तो पूरा सिर आसमान की तरफ उठाकर देखना पड़ता है रावण के अट्टाहास करते सिर को। इसलिए दूर से देखना ही ठीक है। हर बार की तरह इस बार फिर दशहरे का कव्हरेज। खबर बनानी है भाई, क्या विशेषता रही इस बार के रावण की, सिर पर गधा बनाया कि नहीं, एकाध सिर कम तो नहीं हो गया। सुपुत्र ने इस बार जिद की रावण देखने की। मैंने कहा मुझे ही देख लो, वहां जाने की क्या जरूरत है। पड़ोस में लालू अंकल हैं उसे देखकर संतुष्टि कर लो। नहीं माना बालक, कलयुग में वैसे भी बच्चे लगातार जिद्दी प्रवृत्ति के होते जा रहे हैं। पीछे ही पड़ गया मुनवा। थक हार कर मैंने कहा चल पुत्तर । हाईस्कूल के मैदान में तमाम कारीगर रावण बंधुओं को बनाने में लगे हुए थे। किनारे में एक तरफ रावण के दस सिर वाला हिस्सा रखा हुआ था। मैंने सोचा कि चलो पहले से तैयार मुंडी को ही देख लिया जाए। उसके सामने पहुंचा। रावण के अगल-बगल के नौ सिर तो मुस्कुरा रहे थे, पर बीच वाला मुख्य चेहरा मायूस, दुखी दिखा। मुझसे रहा नहीं गया, रावण की उदासी, दुख मुझसे सहा नहीं गया, पूछ बैठा, हे भूतपूर्व लंकाधिपति, आप दुखी क्यों हैं। जबकि हर साल लोग आपको याद करते हैं। बल्कि साल भर में, देश भर में, किसी न किसी रूप में आपका पुतला जलाया ही जाता है। इतने बार तो आपको लंका से बेघर करने वाले प्रभुजी को भी लोग याद नहीं करते। दुख का क्या कारण है, फिर आपके अन्य सिर तो खुश हैं ?रावण बोला, क्या बताउं, नारद के बिगड़े वंशजों, तुम लोग भी मेरे दुख का कोई ख्याल नहीं करते, मेरे दुखी होने का कारण जानकर भी उसे नहीं छापते, क्योंकि कलयुग के महारावणों ने तुम्हारी बिरादरी की सोच पर कब्जा कर रखा है। मेरी तुलना कलयुग के ऐसे लोगों से की जा रही है, मैं सोच भी नहीं सकता। भाई, मैंने सीताजी का अपहरण किया, राज्य में अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जो प्रपंच किए। मेरे राज्य में दुखी तो सिर्फ विभीषण ही था। पर कलयुग में झांको, कैसे-कैसे कुकर्म, बहुमत के बिना जबरिया मुख्यमंत्री बनाने वाले, विधानसभाओं में कुर्सी फंेकने और चप्पल चलाने वाले, जनता की जिंदगियों को प्रदूषण और खतरों के हवाले करने वाले, खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने वाले आदि-आदि क्या क्या गिनाउं। साल में एक बार जलता था तो लगता था कि मैंने जो किया, उसी को भोग रहा हूं, पर साल भर में सैकड़ों बार दूसरे कुन्यातियों के इल्जाम अपने सर लेकर जलना कैसे सहन करूं। एक कागज का टुकड़ा मेरी छाती पर चिपकाया और लिख दिया किसी का भी नाम, पर पुतला तो मेरा ही होता है ना, कुकर्म कोई और करे, भोगूं मैं। ये कहां का इंसाफ है ? तुम्ही बताओ, तुम भी तो पुतला दहन का तरह-तरह के एंगल बनाकर फोटो खींचते हो, अखबार में छापते हो, टीवी में दिखाते हो। इसे क्यों नहीं छापते। मैं ने रावण के दुख में सहमति जताते हुए सिर हिलाया, फिर पूछा, पर हे महापंडित, आपके अन्य सिर तो खुश हैं, मुस्कुरा रहे हैं, क्या लफड़ा है। अरे, लफड़ा कैसा, मैं अन्य कारण से दुखी हूं, और ये लोग खुश होते रहते हैं कि इन्हें साल में सिर्फ एक बार ही जलना पड़ता है और मुझे साल भर में सैकड़ों बार। फिर ये मेरा मजाक भी उड़ाते हैं कि तू चाहे कितने बार भी मर, कितने बार जल, लोग तुझे जिंदा रखेंगे, हर साल मारेंगे, साल भर में सैकड़ों बार जलाएंगे। मैं हर साल बढ़ रहा हूं आतंक और अत्याचार के रूप में, नारी शक्ति पर हो रहे अन्याय के रूप में। तेलगियों और हर्षद मेहताओं के रूप में, मुझे खत्म करके चैन से मरने देना भी लोग नहीं चाहते। दुखी न होउं तो क्या करूं। मैंने हाथ जोड़ लिए, कुछ नहीं कहा। लौट गया रावण का दुखी चेहरा जेहन में लेकर। सुपुत्र ने पूछा, पापा, रावण को हर साल क्यों जलाते हैं। मैंने सिर्फ इतना ही कहा बेटे, क्योंकि यह हर साल जिंदा हो जाता है, रावण तो सदियों से मरा ही नहीं, इसलिए जलाकर इसे मिटाने का प्रयास करते हैं। अगले साल रावण फिर अपने कुनबे के साथ देश भर के मैदानों में जलने के लिए खड़ा दिखेगा, मगर मरेगा नहीं, हर साल बढ़ेगा, हर साल जिंदा हो जाएगा। यह तो जलता-मरता रहेगा, पर मन के एक कोने में छिपे रावण को भी कोई मार सकेगा ?

फिल्मकार भी कभी-कभी नहीं, अधिकतर अपनी फिल्मों के जरिए परिवार में परेशानियां ही पैदा कर देते हैं। बाबी देओल ने बरसात में नीला चश्मा पहना तो मेरा सुपुत्र [फिलहाल सुपुत्र ही कहना पड़ेगा] जिद पर अड़ गया कि उसे भी नीला चश्‍मा पहनना है, टीवी सीरियल पर कोमलिका नाम के कैरेक्टर को देखकर अर्धांगिनी ने चढ़ाई कर दी कि उसे भी कोमलिका जैसे गहने, सौंदर्य प्रसाधन चाहिए। इन सब परेशानियों से तो जैसे तैसे निपट लिया, पर सबसे बड़ी परेशानी पैदा की भैंस की पूंछ ने, अरे भई, मैं शाहरूख खान अभिनीत चक दे इंडिया की बात कर रहा हूं। पिछले दिनों टीवी पर जब यह फिल्म आई तो मेरी 8 बरस की बिटिया शानू भी यह धांसू फिल्म [धांसू क्यों कहा, आगे पता चलेगा ]देख रहे थे। फिल्म में महिला हाकी खिलाडियों को प्रोत्साहित करते हुए शाहरूख को देखकर मेरे आल-औलादें [ ज्यादा नहीं,सिर्फ तीन है ] भी काफी खुश दिख रहे थे, पर फिल्म में एक महिला खिलाड़ी बार-बार धौंसियाते हुए कहती थी इसकी तो.. भैंस की पूंछ। कई बार जब यही डायलाग बिटिया ने सुना तो उसे लगा कि शायद भैंस की पूंछ पकड़ने की वजह से ही ये महिला खिलाड़ी फिल्म में अभिनय करने का मौका पा सकी है। लिहाजा बिटिया भी मुझसे अड़ गई, मुझे भी भैंस की पूंछ पकड़ना है। मैं ठहरा छोटा-मोटा पत्रकार, तबेले में कभी झांकने तक गया नहीं, कि कैसे काली-कलूटी भारी-भरकम भैंस दिन भर मुंह चलाते हुए जुगाली कर लेती है, मुंह दर्द भी नहीं देता [शायद न्यूज चैनलों के एंकर मुंह चलाने के प्रेरणा भी भैंस की जुगाली से पाते होंगे ?] फिर यमराज के इस वाहन को छेड़े कौन, चढ़ बैठी, तो ब्रम्हा भी नहीं बचा सकते। मैंने कहा बेटू, ये भैंस कोई आस-पड़ोस में होती तो तुझे जरूर दिखा देता, पूंछ पकड़वाने की हिम्मत भी कर लेता, पर दूर-दूर तक मुझे किसी के यहां भैंस होने का पता ही नहीं, तो कहां से लाउं भैंस, जिद नहीं करते। पर बालहठ तो जैसे चरम पर था, मैंया मैं तो चंद्र खिलौना लैंहों, कृष्ण जी को मां यशोदा से टीवी सीरियल में बालहठ करते मेरी बिटिया देख ही चुकी थी, लिहाजा मानने को तैयार ही नहीं। उसे किसी भी तरह भैंस की पूंछ पकड़नी ही थी। मैंने सोचा कि अब नन्ही बिटिया का दिल रखने के लिए थोड़ी बहुत परेशानी झेल ही लूं। साथी पत्रकार राजकुमार देहात क्षेत्र के अच्छे जानकार थे, उसे मोबाईल लगाकर पूछा यार एक भैंस देखनी है, मित्र आश्चर्यचकित होते हुए बोले क्यों, पत्रकारी छोड़कर तबेला खोलने का इरादा है क्या ? मैंने उसे सारा किस्सा बताया तो उसने अपने एक परिचित का पता दिया कहा कि मेरा नाम ले लेना, वह आपको भैंस से मिलवा देगा। मैंने एहसान माना, इसलिए कि पत्रकार बंधु ने फोकट में मेरी परेशानी हल कर दी थी, वरना आजकल लोग फिकरे कसते नहीं चूकते कि बिना दारू, मुर्गे, पार्टी-शार्टी के इस बिरादरी वालों से काम निकलवाना कठिन है। फिर मैं अपनी खटारी मोटरसायकिल पर बिटिया को बिठाकर चल पड़ा गांव की ओर। गांव पंद्रह किलोमीटर दूर था, वहां पहुंचकर अपने मित्र राज के मित्र सतीश को मैंने परिचय दिया, तो वह अपनी बाड़ी में बंधी हुई इकलौती भैंस से मिलाने ले चला। उसके पहले सतीश ने मुझे बताया, अब तक चार लोगों को अस्पताल भेज चुकी है मेरी प्यारी भैंस, मैं घबरा गया, उसने कहा घबराने की जरूरत नहीं, बहुत सीधी है, बस टेढ़े-मेढ़े लोगों से चिढ़ती है, तो चढ़ दौड़ती है उन पर। मैंने सोचा कि मैं तो ठहरा सीधा-साधा पत्रकार, भैंस से मेरी क्या दुश्मनी। बिटिया को लेकर मैं भैंस के पास पहुंचा, दस मीटर लंबी रस्सी से, खूंटे में बंधी खूबसूरत सी काली भैंस मेरी तरफ देखकर जुगाली करने लगी, ऐसा लगा कि मुस्कुरा रही है, काम बन जाएगा। बिटिया ने कहा मुझे इसकी पूंछ पकड़ना है, मैं बिटिया का भैंस के पिछवाडे़ की तरफ ले गया और कहा ले पकड़ पूंछ, अपना शौंक पूरा करले। बिटिया ने पूंछ पकड़ी, भैंस अपनी धुन में जुगाली करती रही। बिटिया को मजा आया, पांच मिनट तक पूंछ पकड़ कर हिलाई-डुलाई-सहलाई। पूंछ छोड़कर बिटिया बोली कि चलो पापा हो गया। मैंने सोचा कि जब इतना दूर आया हूं इस महान आत्मा, यमराज की सवारी, मेरी बिटिया को लगी प्यारी भैंस की एक फोटो खींच ही लूं, याद रहेगा कि जीवन में इससे भी मिलने की जरूरत पड़ गई। मैंने कैमरा निकाला कर सामने से फोटो खींचा, कैमरे का फ्लैष चमका, इससे भैंस भी चमक कर मेरी ओर दौड़ी और दोनों सींगों से उठाकर जो पटका, तो लगा कि बस अब तो सब कुछ खतम, कैमरा दूर छिटक कर पानी की टंकी में गिर गया। सतीश ने मुझे दौड़कर उठाया और भैंस से दूर ले गया, बोला अरे, इतने पास से फोटो खींचने की क्या जरूरत थी। मैंने शरीर में उठ रहे दर्द के कारण कुछ नहीं कहा। किसी तरह बिटिया को वापस ले कर घर पहुंचा। उसके बाद बिस्तर पर लेटा तो शाम तक उठने की हिम्मत नहीं हुई। पत्नी ने कई बार पूछा कि क्या हुआ दफ्तर नहीं जाना क्या, मैं उसे कैसे बताता कि उसके बेलन सहते-सहते थोड़ा मजबूत तो हो गया था, पर भैंस की पटखनी को सहना मेरे बस की बात नहीं थी। ले देकर पत्नी ने हाथ पैर में मालिश की तो नींद आई। सुबह उठा तो चक दे...बनाने वाले को कोसा। फिर भैंस की याद आई तो सहम गया। कान पकड़े कि अब भैंस की तस्वीर जीवन भर नहीं खींचूगा। हाय रे भैंस की पूंछ, क्या सोचा था क्या हो गया।अब नीचे दी हुई तस्वीर देखकर ये मत कहना कि भैंस से इतना डरते हो, तो यह तस्वीर कहां से खींची। अरे भाई ये तो पुरानी तस्वीर है जो मैंने काफी दूर से डबरी तालाब में मौज करती हुई भैंस की ली थी। शायद उस भैंस की फोटो खींचने का बदला उसकी इस रिश्‍तेदार भैंस ने लिया था।