साहब मोहल्ले में नए-नए आए थे। उनकी चालढाल, रहन-सहन, अदाएं, नखरे लोगों को हजम नहीं हो पाते थे। दरअसल हाजमोला खाने से पेट का खाना तो हजम हो सकता है, बाकी चीजें नहीं। तो साहेबान, रोज नई नई गाडियों में सवार होकर आते, मोहल्ले भर में दो तीन बार अपनी गाड़ी घुमाते और फिर घर के अंदर घुस जाते। मैं भी ठहरा खबरनवीस, साहब की चर्चा लोगों के मुख से सुन सुनकर मेरे कान पक गए थे, चर्चा भी इतनी ज्यादा कि ब्रिटेन में हो रही राजशाही शादी के किस्से भी शर्मा जाएं। लिहाजा मैं भी झल्ला गया कि आखिर साहब हैं कौन सी हस्ती जो उनकी इतनी चर्चा पूरे मोहल्ले ही नहीं, शहर में भी फैली हुई है। जानखिलावन जासूस की तरह मैंने भी ठान लिया कि साहब के बारे में सबकुछ पता करना है। सबसे पहले तो उनके बंगले के सामने पहुंचा। इधर उधर ताका-झांका, फिर गेट के भीतर बैठे दिख रहे संतरी को धीरे से आवाज लगाई। संतरी गेट के पास आकर खड़ा हो गया।
मैंने कहा-अरे मुसद्दी भाई, ये नए साहब कौन हैं, कुछ बताओ तो सही। संतरी ने कान में धीरे से फुसफुसाकर साहब के बारे में बताया। साहब की पहुंच और कलाओं को सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। फिर भी सोचा कि अब साहब के दफ्तर का भी जरा हाल-चाल देख लूं। सरकारी दफ्तरों में वैसे भी आए दिन जाना पड़ता है, तो वहां के बड़े साहबों आई मीन चपरासियों से मेरी काफी जान पहचान भी है। किसी भी साहब के बारे में चपरासी से अच्छी जानकारी अन्य कोई नहीं दे सकता। यही तो कला है बाकी सब विज्ञान है। तो मैंने साहब के दफ्तर पहुंचकर उनके कमरे के बाहर बैठे चपरासी को पुचकारा, किसी तरह लहटाया और साहब के कमरे में प्रवेश किया। मैंने कहा-साहब जी नमस्कार। फाईलों पर कुछ लिख रहे साहब ने सिर उठाकर मुझे देखा, फिर बेरूखी भरे अंदाज में सिर हिलाया और कहा - कहिए। मैंने अपना परिचय दिया। वे अपनी फाईलों पर लिखते हुए व्यस्त रहे। मैंने कमरे में नजर दौड़ाई। एक कोने में चाय काफी बनाने वाली मशीन, दूसरे कोने में प्यारा सा फ्रिज, साहब की टेबल से कुछ दूर एक कम्प्यूटर रखा हुआ था। मैं तो हैरान हो गया साहब के ठाठ देखकर। तभी एक बाबू ने कई फाईलें लेकर कमरे में प्रवेश किया। साहब के सामने फाईले रखकर उन्हें नमस्कार किया। साहब ने सिर हिलाया और चपरासी से कहा - ठीक है सामने वाली पार्टी को घर पर भेज देना, बाकी सब मैं देख लूंगा। मैं हैरान सा साहब की स्टाईल देख रहा था। साहब की कलाएं तो चन्द्रमा की कलाओं से ज्यादा तेज थीं। फिर मैंने साहब से विदा लिया और उनके कमरे से बाहर हो गया। चपरासी ने पूछा-क्या हुआ भईये। मैने कहा- साहब तो कुछ कहते ही नहीं। चपरासी ने कहा-राज की बात बताउं भईये, उन्हें फाईलें निपटाना अच्छी तरह आता है, किसी भी तरह का गड़बड़झाला हो, लंद-फंद का झमेला हो, साहब बिंदास होकर सबका काम कर देते हैं। लक्ष्मी जी के भक्त हैं, उनका आदेश कभी टालते नहीं। तभी तो साहब के बंगले के बाहर रोज नई-नई गाड़ियां खड़ी दिखती हैं। उद्योगपति आगे-पीछे फिरते हैं, साहब के अंदर जबरदस्त कला है। जब भी कोई उपरवाला साहब आता है, उसे चिकनी चुपड़ी, बड़ी-बड़ी बातें करके, सेवा-सत्कार करके वापस भेज देते हैं, यह उनका विज्ञान है।
सच ही था जो चपरासी बता रहा है, साहब का रूआब, अदा कुछ अलग ही थे। कुछ दिन बीते, साहब हमेशा चर्चा में ही रहे, जैसे जैसे पुराने होते गए, चापलूसों का हुजूम भी बढ़ता गया। किसी न किसी कारनामें से साहब सुर्खियों में रहते। साहब चिकने घड़े थे, जितना पानी डालो, फिसल ही जाता था। उनकी प्रसिध्दि को दाग तो बहुत लगे। पर वे लक्ष्मीभक्ति से काफी कुछ हासिल कर चुके थे। लोगों को इंतजार होने लगा कि आखिर कब इनके रूआब का सूरज अस्त होगा। लेकिन मैं एक और बात सोच रहा हूं कि देश भर में ऐसे कितने साहब होंगे जो अपनी ऐसी कलाओं से आम जनता का हक चूस रहे हैं। इस खौफ से परे कि अति का अंत कभी न कभी होना है। अपनी कला दिखाकर हासिल किए गए ऐशो आराम, रूतबा, रूआब स्थाई नहीं होते। कुछ चीजें बूमरेंग की तरह होती हैं, घूम फिरकर वापस उसी के पास लौट आती हैं, जो इन्हें दूसरों पर फेंकता है। यह विज्ञान है। इसलिए कला दिखाने वालों, सावधान हो जाओ कि अब देश का विज्ञान भी तरक्की पर है। जिस दिन विज्ञान मूड में आ गया सारी कलाएं धरी रह जाएंगी।

यह तो पढ़ी-सुनी और टीवी पर देखी हुई कहानियां है कि कभी सतयुग, द्वापर में ब्रह्मास्त्र नामक एक महान हथियार हुआ करता था, जो एक बार कमान से निकल जाए, तो खाली नहीं जाता था। असुरों के आतंक से दुखी देवगण त्रिदेवों की शरण में पहुंच जाते थे, उसके बाद यथासंभव अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करके देवताओं को मुक्ति दिलाई जाती थी। कलयुग में काफी कुछ बदला हुआ है। इन्द्रदेव की सभा में नर्तकियों का मनमोहक नृत्य देखने को मिलता था, कलयुग में बालीवुड ने इसका तोड़ निकाल लिया आईटम सांग के रूप में, भला हो फिल्मकारों का जो बिना किसी वजह के, अपनी फिल्मों में लोगों को ऐसी चीजों के दर्शन कराते हैं, जो आम लोगों को यथार्थ में उपलब्ध होना संभव नहीं। बात ब्रह्मास्त्र की हो रही थी, तो अचानक ही मुझे याद आया कि आजकल एक अस्त्र का चलन तेजी से बढ़ा हुआ है। देवताओं के युग में ब्रह्मास्त्र अभेद होता था, मानवयुग में चप्पल नाम का अस्त्र काफी प्रसिध्दि हासिल कर रहा है। माना कि इसे पैरों पहना जाता है, लेकिन जब यह किसी के सिर पर पड़ता है तो उसे दिन में तारे दिख जाते हैं। कलयुग में ब्रह्मास्त्र या अन्य सिध्द अस्त्र तो रहे नहीं, तो सबसे सुविधाजनक लगने वाला यह अस्त्र प्रयोग में लाया जा रहा है। कहावत है कि जूती, चप्पल चाहे चांदी की हो या सोने की, रहेगी तो पांवों में ही। लेकिन जब यह किसी पर पड़ती है या फेंकी जाती है तो अखबारों के प्रथम पृष्ठ की सुर्खियां बनती हैं और इसका प्रयोग करने वाले को रातों रात प्रसिध्दि मिल जाती है। मुझे तो लगता है कि देवताओं को इस बात से मानवों से ईर्ष्या भी हो सकती है कि उन युगों में अखबार क्यों नहीं छपते थे, जिससे कि ब्रह्मास्त्र की महानता का बखान स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो पाता। जिस जिस पर चप्पल-जूते चले, उन्हें तो लोग पहले से जानते थे, लेकिन जिसने इसका प्रयोग किया, उसे पूरे देश के लोग एक ही दिन में जानने लग गए। वैसे भी संसद, विधानसभाओं में चप्पलें चलने का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। अब देखिए न, कामनवेल्थ गेम्स पर भ्रष्टाचार की कालिख पोतने वाले बेचारे कलमाड़ी पर एक गबरू जवान, जोश खरोश से परिपूर्ण युवा ने चप्पल फेंक दी, इसके पहले चिदम्बरम्, आडवाणी आदि आदि पर भी इसी कैटेगिरी के अस्त्र का प्रयोग किया जा चुका है। एक भाई जरनैल सिंह भी हैं, जिन्होंने चप्पल का मान बढ़ाया। चप्पल का महत्व दिनों-दिन बढ़ रहा है, कारण यह है कि ब्रह्मास्त्र को हासिल करने के लिए कठिन तप करने पड़ते थे, चप्पल तो हर गांव शहर की दुकानों में उपलब्ध है, इसे पहनना लोगों की आदत में शुमार हो चुका है, इसे पहनकर घूमने-फिरने पर भी कोई पाबंदी नहीं है और जब जैसा मौका लगे उपयोग भी कर सकते हैं। इसे सिर्फ धार्मिक स्थलों के भीतरी भाग में पहनकर जाने पर पाबंदी है, लेकिन यह भी सत्य है कि अपने देवी-देवताओं को मनाने मंदिर पहंचे अधिकतर भक्तों का ध्यान पूजा पाठ में कम, अपनी चप्पल पर ही ज्यादा रहता है, कि कहीं इसे कोई चोरी करके न ले जाए। यह बात मैंने किसी बुजुर्ग से सुनी है कि अगर मंदिर से चप्पल चोरी हो जाए तो कई कष्ट दूर हो जाते हैं, चोरी करने वाला हमारे कष्ट चप्पल के साथ खुद पर ले लेता है। मैं जब भी किसी धार्मिक स्थल जाता हूं तो सोचता हूं कि काश कोई मेरी चप्पल चुरा ले, ताकि शनिदेव द्वारा दिए जाने वाले कष्ट भी मुझसे दूर हो जाएं। लेकिन मेरी यह मुराद अब तक पूरी नहीं हुई, मेरे आल-औलादों, श्रीमतियों सॉरी सिर्फ एकमात्र श्रीमति जी की चप्पल कई बार मंदिर के बाहर से चोरी हो चुकी है, पर मेरी इस मन्नत को भगवान ने अब तक सुना नहीं। बहरहाल ब्रम्हा जी मुझे माफ कर देना, इसलिए कि आपके सिध्द ब्रह्मास्त्र से कलयुग की नामाकूल चप्पल की तुलना करने की गुस्ताखी की है, लेकिन मुझे तो यही लगता है कि किसी की अति से दुखी लोगों के लिए कलयुग में चप्पल से अनूठा कोई अस्त्र नहीं हो सकता। लोग भी अब इंतजार में हैं कि अगली चप्पल किस महा प्रसिध्द हस्ती पर फेंकी जाएगी ?

बकरा यानि बलि का बकरा होना सिर्फ अकेले उनका भाग्य ही नहीं रहा है। बकरे जैसा भाग्य तो मानव के हिस्से में भी रहा है, तभी तो शादी के पहले दूल्हे के दोस्त-यार उसकी टांग खींचने से नहीं चूकते, ’’अब तो बलि का बकरा बनने जा रहा मेरा मुन्नू। बेटा, इसके बाद तो किसी काम का नहीं रहेगा’’।
ऐसा लगता है मानो घर में बहू नहीं कोई कसाई आ रही हो, जो आते साथ ही अपने नैनों की तेज धार से दूल्हे की बलि चढ़ा देगी। सड़क पर बकरों के झुंड को बिलबिलाते देखकर तरस आने लगता है इन्हें देखकर कि आखिर इनके सिर तो एक दिन कटने ही हैं। दुनिया, देश, प्रदेश, समाज में चारों तरफ मुझे बेचारे बकरे ही बकरे दिखते हैं। रोज कटने को तैयार, जैसे ही कोई खरीदार इन्हें बाजार से खरीदता है, बकरे की मौत का काउंटडाउन शुरू हो जाता है। पर मैं खुद को भी इन बकरों से परे नहीं समझता हूं, क्योंकि सात फेरे मैंने ले ही लिए, तो खुद को इस कौम से अलग रखना मेरे बस की बात नहीं। घर से लेकर देश दुनिया में फैले भ्रष्टाचारी कसाई की तरह वैसे भी रोज जनता को बकरा समझ कर उनके हितों की, अधिकारों की, हक की बलि चढ़ा ही रहे हैं।
इसी तरह मेरी इकलौती अर्धागिंनी (अर्धांगिनी को इकलौती कहोगे, तो सुखी रहोगे) और तीन सुपात्र बच्चे रोजाना मेरी जेब की बलि चढ़ाने में भिड़े रहते हैं, जेब न हुई कोई बकरी-बकरा हो गई। पिछले कई दिनों ये सभी मेरी जेब में आने वाली एक माह की तनख्वाह की बलि चढ़ाने के लिए अपनी आस्तीनें ताने बैठे थे कि ड्रीम पाइंट होटल लेकर चलो। रोज रोज की किचकिच से तंग आकर मैंने सोच लिया कि इससे छुटकारा पाने के लिए यह बलि दे दी जाए। लिहाजा उस शाम सभी को लेकर मैं पहुंच गया होटल। बेयरे ने थोड़ी देर तक दूर से ही मुझे घूर निहारकर देखा, फिर आया ’’ हां साब, आर्डर बोलिए। मैंने कहा ‘‘मेनू कार्ड तो दिखाओ। कार्ड देकर वह चला गया। कुछ देर तक मैं मेनू की लिस्ट देखता रहा। कुछ समझ में आ रहा था और कुछ समझने की मैं कोशिश कर रहा था, लेकिन एक व्यंजन मेरी समझ से बिलकुल परे था। मेनू कार्ड में एक जगह लिखा हुआ था ‘‘शाकाहारी बकरा’’। मैं चौंका, ये कौन सा नया व्यंजन पैदा हो गया। इतने में बेयरा फिर आ गया मैंने उसे बच्चों की पसंद का आर्डर देकर चलता किया। मैं ठहरा शाकाहारी जीव, नानवेज में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन बकरे का व्यंजन वह भी शाकाहारी, मुझे बार बार सोचने पर मजबूर कर रहा था। आखिर मैंने काउंटर पर मौजूद मैनेजर को बुला कर पूछ ही लिया। उसने कहा ‘‘अरे साब, बकरा तो शाकाहारी होता है। मैंने कहा ’’ वो तो सभी बकरे शाकाहारी होते हैं, इसमें नया क्या है। मैनेजर बोला ’’क्या है कि आजकल डिशेज का नया नया नाम रखने का फैशन है, इसलिए इसका नाम रख दिया है। मैंने माथा धर लिया, अरे भाई, शाकाहारी होना तो बेचारे बकरे की किस्मत में होता ही है, पर उसे चट करने वाले तो मांसाहारी हुए न। मैनेजर ने नाक भौं सिकोड़ते हुए वहां से खिसकने में ही भलाई समझी। फिलहाल मैंने और बच्चों ने शाकाहारी व्यंजनों का लुत्फ उठाया, अपनी तनख्वाह की बलि चढ़ाकर लौटते हुए मैं सोच रहा था कि देश का बहुत बड़ा तबका भी होटल के उसी शाकाहारी बकरे की तरह निरीह है, जिनके हक हिसाब को व्यंजन की तरह मजे ले लेकर भ्रष्ट, बेईमान लोग खाते ही नहीं, बल्कि निगल जाते हैं। लेकिन बकरा तो बेचारा ही ठहरा, ऐसे कसाईयों से निपटने के लिए उसे उपरवाले को अपनी किस्मत बदलवाने का आवेदन देना पड़ेगा। आवेदन पर कोई सुनवाई हुई तो बल्ले बल्ले, वरना उसका सिर तो कटने के लिए तैयार बैठा है।

देश नशे के आलम में मदमस्त है, कुछ दिनों पहले किक्रेट का नशा लोगों के सिर चढ़कर बलबला रहा था, अब अण्णा का नशा चढ़ने लगा है बंधुओं को। सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा, सुनो हीरालाल रे, ये नशा भी अजब चीज है, जिसे चढ़ जाए तो उतारा लिए बिना उतरता ही नहीं। शराबी में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया और किशोर कुमार का गाया गीत कितना सटीक है इसका अंदाजा है आपको ? अगर नहीं है तो एक बार जरूर सुनिए ’‘नशा शराब में होता तो नाचती बोतल, नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ जरा‘‘। जिस तरफ देखो नशा ही नशा है। नशे के प्रकार अलग हो सकते हैं, मायने अलग हो सकते हैं, तरीके जुदा हो सकते हैं, पर नशे से कोई बचा नहीं है।
मेरा पड़ोसी लल्लू प्रसाद भी नशे में चूर है, मदहोश है। जब से सगाई हुई तो उस पर मोबाईल का नशा छाया हुआ था, डेढ़ घंटे, दो घंटे, तीन तीन घंटे तक मंगेतर से बतियाता रहता था, जाने क्या-क्या बातें करता होगा, सोचते हुए मैंने एक दिन पूछ ही लिया। लल्लू प्रसाद ने अपनी खींसे निपोरते हुए बताया अरे भईया, अभी तो सगाई हुई है, शादी में कुछ महीने तो लगेंगे ही। फिर आजकल किसी का क्या भरोसा, वेलेंटाईन डे तो साल में एकाध दिन ही मनता है, पर उसका नशा पूरे युवाओं में आठों पहर, चौबीसों घंटे, साल भर चढ़ा रहता है, कहीं दूसरे का नशा उस पर चढ़ गया तो मैं तो गया न काम से, इसलिए अपना नशा चढ़ाने की कोशिश करता हूं उस पर।
एक और पड़ोसी जुगनूराम को रोज टल्ली होने का नशा है, शाम को पीना शुरू करता है तो तीन घंटे से पहले उसके पैग खत्म नहीं होते। होली हो, दीवाली या कोई राष्ट्रीय त्योहार, बिन पिए तो उसका दिन शुरू ही नहीं होता। एक दिन मिल गया हूजूरे आला, पास की नाली में गिरे हुए, एक सुअर की पूंछ पकड़कर सहलाते हुए कह रहा था अरे पप्पू की मां, मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम चोटी भी करती हो, ये क्या अभी तक इसमें खिजाब लगा रखा है, पूरा हाथ ही खराब हो गया। मैंने उसे फटकारते हुए कहा ‘ अरे नामाकूल, इतना ही नशा करने का शौक है तो डूब मर। उसने जवाब दिया ‘अरे भाई, कैसे डूब मरूं, नदी में डूबने गया तो वहां सिर्फ रेत ही रेत है, पानी तो करोड़पतियों को बेच दिया है सरकार ने, मोहल्ले के कुएं को पाट दिया है, तालाब में सिर्फ कीचड़ बचा है, जलकर के दाम म्यूनिस्पिल ने बढ़ा दिए हैं और सरकारी हैंडपंप से भी पानी नईं निकल रहा है, अब डूबने के लिए पानी बचा ई नई, तो ठर्रा पीकर दिल बहलाता हूं।
उसकी बातों से मेरा सिर बिना नशा किए ही चकराने लगा था। मैं सोच में पड़ गया कि ये बात तो सही कह रहा है कि दूध और पानी पीने के लिए मिले न मिले, ठर्रा हर गली, कूचे, मजरेटोले में मौजूद है। वैसे भी लोग अपने अपने नशे में खोए हुए हैं, सरकार के कारिंदे भ्रष्टाचार के नशे में मदमस्त हैं, उद्योगपति राजाओं, राडियाओं, कलमाड़ियों को पाकर मदहोश है, जनता के सामने लोटासन करके वोट पाए, अधिकार प्राप्त नेताओं को घोटाला करने का नशा है, मीडिया सनसनी के नशे में सराबोर है तो बालीवुड में आईटम सांग और कम कपड़े पहनने का नशा छाया हुआ है। लेकिन अब देश के पथभ्रष्ट तंत्र का नशा उतरने लगा है। अपने अण्णा बाबू ने देश के भ्रष्टाचारियों को उतारा लेने पर मजबूर कर दिया है। देखना अभी बाकी है कि राजनीतिक सरपरस्ती के नशे में चूर, लोकतंत्र को अपनी जेब में समझने वाले भ्रष्टों की मदहोशी टूट पाएगी ?


देश में इन दिन आलू प्रेम चरम पर है। जिधर भी देखो आलू ही आलू दिखते हैं। चाट पकौड़े की दुकान पर आलू टिकिया, समोसे में आलू, गोलगप्पे में आलू, बटाटा वड़ा में भी आलू। घरवाली की मेहरबानी आजकल आलू पर ही अधिक दिखती है। जब देखो तो सब्जी बनी है आलू मटर, आलू मेथी, आलू गोभी, आलू भिंडी, आलू पालक, आलू दम वगैरह वगैरह की, नाश्ते में भी बनाया तो आलू पराठा, आलू पोहा, आलू भजिया। लिखते लिखते ही मुंह में पानी आने लगा है। होटल हो या घर, लोग आलू के इस कदर दीवाने हैं कि अगर एक दिन आलू का मुंह न देखें तो पेट का हाजमा ही खराब हो जाए। मेरे मौसा ससुर में जब बताया कि उनके घर में दिन भर में 7 किलो आलू की रोजाना खपत हैं, तो मुझे गश आने लगा। मैं सोचने लगा हूं कि देश की अधिकतर जनता, आम आदमी क्यों है ? जबकि आम का रेट तो इस समय काजू बादाम के बराबर होता जा रहा है। क्या इतनी महंगाई में आम किसी आम आदमी के मुंह तक पहुंच सकता है ? बाजार में एक दिन गलती से फल वाले से पूछ बैठा भाई आम के रेट क्या हैं, दुकानदार ने उपर से नीचे तक मुझे देखा। फिर कहा- खरीदोगे कि सिर्फ पूछने आए हो। मैंने कहा-अरे भाई, आम ही तो है, कोई सोना, चांदी थोड़े है कि खरीदने से पहले सोचना पड़ेगा। ‘‘तोतापरी 160 रूपए, बैंगनफली 200 रूपए, दशहरी 240 रूपए, कितने किलो तौल दूं ? अरे भाई, इतने महंगे, मैंने तो सोचा कि 50-60 रूपए किलो होंगे। दुकानदार बोला- 60 रूपए में तो आम का फोटो भी नहीं मिलेगा, टाईम खोटी मत करो।
मैं तो आम की कीमत सुनकर ही चकरा गया, बिना खरीदे बिना ही बाजार से लौटा, तो मेरी राह तक रही इकलौती अर्धांगिनी और मेरे 3 मासूम बच्चे मुझ पर चढ़ दौड़े, आम लेकर आए क्या ? मैंने कहा - अरी भागवान, आम न हुआ बादाम हो गया, कीमत इतनी बढ़ गई है कि आम खरीदने के लिए अब आम आदमी की जेब गवाही नहीं देती। बदले में आलू ले आया हूं। घरवाले भड़क गए - आलू क्यों ?
मैंने बड़े प्रेम से किसी दार्शनिक की भांति उन्हें लहटाते हुए अपना ज्ञान ग्रंथ खोला और कहा - देखो, आम फलों का राजा कहलाता है, देश की अधिकतर आबादी प्रजा कहलाती है, अब राजा किसी गरीब, गुरबे के यहां तो जाने से रहे, वे तो शहर के चुनिंदा रईसों, शान-शौकत वालों के यहां पहुंचने में ही फख्र महसूस करते हैं। प्याज, गोभी, टमाटर भिंडी, मटर चाहे कितने भी महंगे हो जाएं, लेकिन आलू बेचारा हर किसी के लिए सुविधाजनक होता है। टेटकू, मंटोरा, बुधवारा, शुकवारा जिसे देखो, वह मजे से आलू का रसास्वादन कर लेता है, उसके हिस्से में इतने महंगे आम कहां से आएंगे ? देश की जनता भी तो आलू की तरह हो गई है। जैसे आलू हर किसी सब्जी के साथ अपना सामंजस्य बना लेता है, वैसे ही आम आदमी तमाम गिले शिकवों के बावजूद चुनाव में भ्रष्ट राजनेता के साथ घुल-मिलकर उनके चंगू-मंगुओं को जिता देता है। भ्रष्ट तंत्र को चाहे अनचाहे अपना ही लेता है। 2 जी, 3 जी, आदर्श घोटाला, चारा घोटाला जाने और कितने घोटाले करने वालों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है। लिहाजा आलू की तरह वह सब कुछ सहते हुए चुप रहता है। आलू को चाहे तवे पर भूनो, तेल में जलाओ या सीधे ही आग में डाल दो, वह तो सब कुछ सहेगा और कहेगा भी कुछ नहीं। आम को देखो, एक तो दाम इतने चरम पर है जैसे वह सिर्फ खास लोगों के लिए ही रह गया हो। परचून की दुकानों में रखे अचार के डिब्बों में, कोल्ड ड्रिंक की बोतलों में सजे हुए आम का स्टेटस बढ़ चुका है। जबकि आलू तो किसी गरीब, गुरबे की तरह हर किसी के काम आने को तैयार बैठा है। क्या कभी आलू को बोतलों में सजे हुए, डिब्बों में बंद सुरक्षित देखा है ? नहीं न। तो फिर ये किसने देश की जनता को आम जनता का नाम दे दिया, एक जमाना रहा होगा, जब घर घर आम फलते होंगे, आम के बगीचों में लदकते फलों को तोड़ने के लिए बच्चे, खासकर अल्हड़ जवान मचलते होंगे। भाषा के रचयिता ने इसी वजह से हर गरीब, गुरबे, मध्यम वर्गीय को आम लिख दिया होगा, अब तो बोतल-पाउच का जमाना आ गया है। आम के बगीचे तो सिर्फ पुरानी फिल्मों और तस्वीरों में देखने को रह गए हैं। दोनों की तुलना करें तो आदमी आम नहीं आलू हो गया है। मेरे हिसाब से तो अब आम आदमी नहीं, आलू आदमी कहा जाना चाहिए।