व्यंग्य -
पीएम इन वेटिंग, भाजपा के लौहपुरूष, पूर्व उपप्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, सांसद वगैरह-वगैरह। लोगों ने कई नाम दिए, जुमले बनाए और कुछेक उपलब्धियां आडवाणी जी ने हासिल की। वैसे पीएम इन वेटिंग इन सबसे भारी जुमला है, क्योंकि वेटिंग करने वाले हमेशा इंतजार करते रहते हैं, मौके का फायदा कोई और ले जाता है यानि मेहनत किसी और की फील गुड का मजा किसी और को। यह तो दुनिया का दस्तूर है कि मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाए फकीर। मतलब अटल जी ने बोया, अब आडवाणी काट रहे हैं, आडवाणी बोएंगे, तो मोदी, गड़करी, सुषमा, उमा, शिवराज या रमन जी में से कोई न कोई तो काटेगा ही। अब रथयात्रा को ही लीजिए, आमतौर पर साल भर में एक बार पुरी में जगन्नाथ जी, सुभद्रा और बलदाऊ जी की रथयात्रा निकाली जाती है, दशहरे के दिन मर्यादा पुरूषोत्तम राम, लक्ष्मण, हनुमान का रूप धरकर कलयुगी मानुष रथ पर सवार होकर रावण मारने के लिए निकल पड़ते हैं। इसके अलावा तीसरी रथयात्रा तो हमने आडवाणी जी की सुनी है। कहीं यह रथयात्रा, मनोरथ पूर्ण करने यानि पीएम इन वेटिंग के जुमले को पुख्ता करने के लिए तो नहीं आडवाणी साहब ! वैसे शक करना हम भारतीयों का सबसे अहम् काम है, खासकर पत्रकार होने के बाद शक करना तो जैसे परंपरा हो जाती है। मेरे एक परम करीबी, अजीज मित्र को हर बात में शंका के बादल उमड़ते-घुमड़ते दिखाई देते हैं। मैं उसके गेट वेल सून होने की बार-बार कामना करता हूं, पर बंदा है कि मानता ही नहीं। कभी भाजपा का मुखौटा रहे अटल जी इस वक्त डाउन फाल पर हैं, बल्कि यूं कहिए कि अस्वस्थ हैं, इस वजह से धीरे-धीरे भाजपाईयों के बैनर पोस्टर से उनकी तस्वीरें हटने लगी हैं, यह तो 24 कैरेट सोने से भी खरा सत्य है कि उगते सूरज को हर कोई सलाम करता है। अब देखिए न, जब अटल जी जब सत्तासीन थे, हुकूमत के हुजूरे आला थे तो लोग बैनर-पोस्टर में भले ही अपनी तस्वीर न लगवाएं, पर अटल जी तो विद्यमान रहते ही थे। उनकी कविताओं को बड़े गर्व से, चाव से, रस ले लेकर सुनते और सुनाते थे, हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता हूं मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। परंतु धीरे-धीरे भाजपाईयों की स्मृतियां धूमिल होने लगी हैं, अटल जी तस्वीर उनके मानस से अब धुंधली होने लगी है। जगन्नाथ रथयात्रा या दशहरे के दिन निकलने वाली रथयात्रा महज एकाध दिन में पूरी हो जाती है, पर रामराज में विश्वास रखने वाली पार्टी के हाईकमान आडवाणी साहब की रथयात्रा बड़ी लम्बी-चौड़ी है, 40 दिन, 23 राज्य, 100 जिले, हजारों किलोमीटर सफर और पार्टी के लाखों समर्थक। जितना लम्बा यह सफर है, हमें तो लगता है कि उतना ही बड़ा मनोरथ भी इस रथ पर सवार है। अन्ना हजारे के तांडव से झटके खा-खाकर किसी तरह संभली सोनिया जी की सरकार आई मीन कांग्रेस नीत गठबंधन की सरकार को अब फिर से संभल जाना चाहिए, क्योंकि वक्त पूरी रफ्तार से दौड़ है। वक्त कितनी तेजी से निकल जाता है, यह पता ही नहीं चलता, और जब तक वक्त निकल जाने का अहसास होता है तो सिर्फ हाथ मलना ही बाकी रह जाता है। 5 बरस की केन्द्र सरकार का काउंटडाउन भले ही अभी शुरू न हुआ हो। लेकिन उसके हिस्से में कलमाड़ी, राजा, मारन के बोए गए टू जी, कामनवेल्थ घोटाले के कांटों की धार अब भी कम नहीं हुई है। बबूल के कांटों से लबरेज सत्ता के ताज का वजन लगातार बढ़ रहा है। इस रथयात्रा से आडवाणी का मनोरथ पूरा होगा या मोदी बाजी मार ले जाएंगे या हो सकता है कि बिल्ली के भाग से छींका टूटे ही नहीं, यह सब तो भविष्य की गर्त में है, पर एक बात तो साफ है कि देश के हालात और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी जनता का मन बदलाव की बयार की तरफ मुड़ने लगा है।

व्यंग्य -

यह प्रचलन आजकल हमारे देश में तेजी से बढ़ा है, बाई 1, गेट 1 फ्री यानि एक खरीदो, एक मुफ्त मिलेगा। बढ़िया है, वैसे भी देश में मुफ्तखोरी चरम पर है। लोग बैठे-ठाले मुफ्त का माल हजम करने में पीछे तो रहना नहीं चाहते। मुफ्तखोरी के ऐसे किस्से एक नहीं, हजार मिलेंगे। मेरे एक मित्र की पिछले साल शादी हुई, तो उन्हें पत्नी के साथ मुफ्त में साली भी मिल गई। हुआ यूं कि साली साहिबा उसी शहर में कालेज में पढ़ती थी, जहां उसकी बहन की शादी हुई थी। लिहाजा उसने अपनी बहन के घर डेरा जमा लिया, मित्र महोदय जब भी दफ्तर से घर आते, तो पत्नी सेवा में लगी रहती और वे साली संग बतियाते, वैसे भी मुफ्त का माल हर किसी को अपनी तरफ खींच ही लेता है। ऐसे में होते-होते दोनों इतने घुल मिल गए कि दोनों एक दिन घर छोड़कर भाग गए और पत्नी अपने करम पीटती अकेली रह गई।
हमारे पड़ोस में रहने वाले एक अफसर महोदय भी कुछ ऐसे ही मुफ्तखोरी समिति के सदस्य थे, उन्हें तो हर चीज मुफ्त में चाहिए थी, चाहे वह भाजी-तरकारी हो या सोना-चांदी, कपड़े-लत्ते। किसी भी दुकान पर जाते, तमाम चीजें उलट-पलट कर देखते और झोले भर-भर के चीजें दुकानदार से ले आते, बदले में किसी मातहत को फोन कर कह देते कि फलां दुकानदार का बिल अदा कर दो। बेचारा कर्मचारी, अफसर की मुफ्तखोरी से परेशान।
इसी तरह का हाल-चाल इन दिनों हमारे देश का भी है, मनमोहना से मुग्ध जनता उनके कई मंत्रियों-संतरियों के तमाम घपलों-घोटालों के बावजूद किसी तरह उन्हें झेल ही रही है, क्योंकि गड़बड़झाले के छींटे डायरेक्ट उन पर नहीं पड़े हैं। लेकिन मोंटेक जी महाराज ने तो कमाल कर दिया, गरीबी की नई परिभाषा देकर। 32 रूपए प्रतिदिन यानि एक हजार रूपए प्रतिमाह कमाने वाला कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं हो सकता। जब उन्होंने ऐसा कहा तो देश भर में उनकी किरकिरी करने के लिए लोग पीछे पड़ गए। अरे भाई, लोगों ने यह समझा ही नहीं कि आखिर योजना आयोग का काम ही है योजना बनाना। इतने वर्षों में गरीबी कम नहीं कर सके, तो जनता को अमीर बताने की योजना ही बना डाली। अब इसमें गलत क्या है, आजकल तरह-तरह के मैनेजमेंट कोर्स चल रहे हैं, जिसमें बताया जाता है कि बड़ी सोच का बड़ा जादू, सोचो-बोलो-पाओ, पावर अनलिमिटेड, सफलता के सात मंत्र आदि आदि। हमें तो लगता है कि देश की जनता को मुफ्त मिले मनमोहन के साथ, मुफ्त मिले मोंटेक ने ऐसा ही कोई मैनेजमेंट कोर्स देखकर उसे अपनाने की ठान ली है। दरअसल बड़ी सोच का बड़ा जादू यही है कि बड़े सपने देखो और कुछ समय बाद उसका रिजल्ट पाओ, लेकिन यह तभी संभव है जब नीयत, लगन, इच्छाशक्ति, नजरिया भी साथ हो, सिर्फ सपने देखते रहने से तो शेखचिल्ली भी सपने में अमीर बन गया था। मोंटेक साहब को तो कम से कम ऐसे हसीन सपनों से बचना चाहिए। क्योंकि देश की बहुत बड़ी आबादी आज के एक समय खाकर ही जीती है। क्या मनमोहन-मोंटेक या कोई अन्य मंत्री-संतरी 32 रूपए प्रतिदिन के खर्च पर अपना और अपने परिवार का गुजारा कर सकते हैं ? यदि यह संभव है तो खुश हो जाईऐ कि हम सब अमीर हैं।