व्यंग्य -
पीएम इन वेटिंग, भाजपा के लौहपुरूष, पूर्व उपप्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, सांसद वगैरह-वगैरह। लोगों ने कई नाम दिए, जुमले बनाए और कुछेक उपलब्धियां आडवाणी जी ने हासिल की। वैसे पीएम इन वेटिंग इन सबसे भारी जुमला है, क्योंकि वेटिंग करने वाले हमेशा इंतजार करते रहते हैं, मौके का फायदा कोई और ले जाता है यानि मेहनत किसी और की फील गुड का मजा किसी और को। यह तो दुनिया का दस्तूर है कि मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाए फकीर। मतलब अटल जी ने बोया, अब आडवाणी काट रहे हैं, आडवाणी बोएंगे, तो मोदी, गड़करी, सुषमा, उमा, शिवराज या रमन जी में से कोई न कोई तो काटेगा ही। अब रथयात्रा को ही लीजिए, आमतौर पर साल भर में एक बार पुरी में जगन्नाथ जी, सुभद्रा और बलदाऊ जी की रथयात्रा निकाली जाती है, दशहरे के दिन मर्यादा पुरूषोत्तम राम, लक्ष्मण, हनुमान का रूप धरकर कलयुगी मानुष रथ पर सवार होकर रावण मारने के लिए निकल पड़ते हैं। इसके अलावा तीसरी रथयात्रा तो हमने आडवाणी जी की सुनी है। कहीं यह रथयात्रा, मनोरथ पूर्ण करने यानि पीएम इन वेटिंग के जुमले को पुख्ता करने के लिए तो नहीं आडवाणी साहब ! वैसे शक करना हम भारतीयों का सबसे अहम् काम है, खासकर पत्रकार होने के बाद शक करना तो जैसे परंपरा हो जाती है। मेरे एक परम करीबी, अजीज मित्र को हर बात में शंका के बादल उमड़ते-घुमड़ते दिखाई देते हैं। मैं उसके गेट वेल सून होने की बार-बार कामना करता हूं, पर बंदा है कि मानता ही नहीं। कभी भाजपा का मुखौटा रहे अटल जी इस वक्त डाउन फाल पर हैं, बल्कि यूं कहिए कि अस्वस्थ हैं, इस वजह से धीरे-धीरे भाजपाईयों के बैनर पोस्टर से उनकी तस्वीरें हटने लगी हैं, यह तो 24 कैरेट सोने से भी खरा सत्य है कि उगते सूरज को हर कोई सलाम करता है। अब देखिए न, जब अटल जी जब सत्तासीन थे, हुकूमत के हुजूरे आला थे तो लोग बैनर-पोस्टर में भले ही अपनी तस्वीर न लगवाएं, पर अटल जी तो विद्यमान रहते ही थे। उनकी कविताओं को बड़े गर्व से, चाव से, रस ले लेकर सुनते और सुनाते थे, हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता हूं मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। परंतु धीरे-धीरे भाजपाईयों की स्मृतियां धूमिल होने लगी हैं, अटल जी तस्वीर उनके मानस से अब धुंधली होने लगी है। जगन्नाथ रथयात्रा या दशहरे के दिन निकलने वाली रथयात्रा महज एकाध दिन में पूरी हो जाती है, पर रामराज में विश्वास रखने वाली पार्टी के हाईकमान आडवाणी साहब की रथयात्रा बड़ी लम्बी-चौड़ी है, 40 दिन, 23 राज्य, 100 जिले, हजारों किलोमीटर सफर और पार्टी के लाखों समर्थक। जितना लम्बा यह सफर है, हमें तो लगता है कि उतना ही बड़ा मनोरथ भी इस रथ पर सवार है। अन्ना हजारे के तांडव से झटके खा-खाकर किसी तरह संभली सोनिया जी की सरकार आई मीन कांग्रेस नीत गठबंधन की सरकार को अब फिर से संभल जाना चाहिए, क्योंकि वक्त पूरी रफ्तार से दौड़ है। वक्त कितनी तेजी से निकल जाता है, यह पता ही नहीं चलता, और जब तक वक्त निकल जाने का अहसास होता है तो सिर्फ हाथ मलना ही बाकी रह जाता है। 5 बरस की केन्द्र सरकार का काउंटडाउन भले ही अभी शुरू न हुआ हो। लेकिन उसके हिस्से में कलमाड़ी, राजा, मारन के बोए गए टू जी, कामनवेल्थ घोटाले के कांटों की धार अब भी कम नहीं हुई है। बबूल के कांटों से लबरेज सत्ता के ताज का वजन लगातार बढ़ रहा है। इस रथयात्रा से आडवाणी का मनोरथ पूरा होगा या मोदी बाजी मार ले जाएंगे या हो सकता है कि बिल्ली के भाग से छींका टूटे ही नहीं, यह सब तो भविष्य की गर्त में है, पर एक बात तो साफ है कि देश के हालात और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी जनता का मन बदलाव की बयार की तरफ मुड़ने लगा है।

व्यंग्य -

यह प्रचलन आजकल हमारे देश में तेजी से बढ़ा है, बाई 1, गेट 1 फ्री यानि एक खरीदो, एक मुफ्त मिलेगा। बढ़िया है, वैसे भी देश में मुफ्तखोरी चरम पर है। लोग बैठे-ठाले मुफ्त का माल हजम करने में पीछे तो रहना नहीं चाहते। मुफ्तखोरी के ऐसे किस्से एक नहीं, हजार मिलेंगे। मेरे एक मित्र की पिछले साल शादी हुई, तो उन्हें पत्नी के साथ मुफ्त में साली भी मिल गई। हुआ यूं कि साली साहिबा उसी शहर में कालेज में पढ़ती थी, जहां उसकी बहन की शादी हुई थी। लिहाजा उसने अपनी बहन के घर डेरा जमा लिया, मित्र महोदय जब भी दफ्तर से घर आते, तो पत्नी सेवा में लगी रहती और वे साली संग बतियाते, वैसे भी मुफ्त का माल हर किसी को अपनी तरफ खींच ही लेता है। ऐसे में होते-होते दोनों इतने घुल मिल गए कि दोनों एक दिन घर छोड़कर भाग गए और पत्नी अपने करम पीटती अकेली रह गई।
हमारे पड़ोस में रहने वाले एक अफसर महोदय भी कुछ ऐसे ही मुफ्तखोरी समिति के सदस्य थे, उन्हें तो हर चीज मुफ्त में चाहिए थी, चाहे वह भाजी-तरकारी हो या सोना-चांदी, कपड़े-लत्ते। किसी भी दुकान पर जाते, तमाम चीजें उलट-पलट कर देखते और झोले भर-भर के चीजें दुकानदार से ले आते, बदले में किसी मातहत को फोन कर कह देते कि फलां दुकानदार का बिल अदा कर दो। बेचारा कर्मचारी, अफसर की मुफ्तखोरी से परेशान।
इसी तरह का हाल-चाल इन दिनों हमारे देश का भी है, मनमोहना से मुग्ध जनता उनके कई मंत्रियों-संतरियों के तमाम घपलों-घोटालों के बावजूद किसी तरह उन्हें झेल ही रही है, क्योंकि गड़बड़झाले के छींटे डायरेक्ट उन पर नहीं पड़े हैं। लेकिन मोंटेक जी महाराज ने तो कमाल कर दिया, गरीबी की नई परिभाषा देकर। 32 रूपए प्रतिदिन यानि एक हजार रूपए प्रतिमाह कमाने वाला कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं हो सकता। जब उन्होंने ऐसा कहा तो देश भर में उनकी किरकिरी करने के लिए लोग पीछे पड़ गए। अरे भाई, लोगों ने यह समझा ही नहीं कि आखिर योजना आयोग का काम ही है योजना बनाना। इतने वर्षों में गरीबी कम नहीं कर सके, तो जनता को अमीर बताने की योजना ही बना डाली। अब इसमें गलत क्या है, आजकल तरह-तरह के मैनेजमेंट कोर्स चल रहे हैं, जिसमें बताया जाता है कि बड़ी सोच का बड़ा जादू, सोचो-बोलो-पाओ, पावर अनलिमिटेड, सफलता के सात मंत्र आदि आदि। हमें तो लगता है कि देश की जनता को मुफ्त मिले मनमोहन के साथ, मुफ्त मिले मोंटेक ने ऐसा ही कोई मैनेजमेंट कोर्स देखकर उसे अपनाने की ठान ली है। दरअसल बड़ी सोच का बड़ा जादू यही है कि बड़े सपने देखो और कुछ समय बाद उसका रिजल्ट पाओ, लेकिन यह तभी संभव है जब नीयत, लगन, इच्छाशक्ति, नजरिया भी साथ हो, सिर्फ सपने देखते रहने से तो शेखचिल्ली भी सपने में अमीर बन गया था। मोंटेक साहब को तो कम से कम ऐसे हसीन सपनों से बचना चाहिए। क्योंकि देश की बहुत बड़ी आबादी आज के एक समय खाकर ही जीती है। क्या मनमोहन-मोंटेक या कोई अन्य मंत्री-संतरी 32 रूपए प्रतिदिन के खर्च पर अपना और अपने परिवार का गुजारा कर सकते हैं ? यदि यह संभव है तो खुश हो जाईऐ कि हम सब अमीर हैं।

व्यंग्य

रंग बदलने की फितरत और उदाहरण भले ही गिरगिट जी के हिस्से में आते हैं, लेकिन मानव जाति में भी कम रंग बदलू लोग नहीं हैं। बल्कि ऐसे लोगों की संख्या ‘मेक प्रोग्रेस लिप्स एंड बाउंस‘ यानि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। स्व. शम्मी कपूर अभिनीत एक फिल्म का गाना भी कुछ इसी तरह है ‘इस रंग बदलती दुनिया में, इंसान की नीयत ठीक नहीं, निकला न करो तुम सज-धज कर ईमान की नीयत ठीक नहीं‘। देश किन परिस्थितियों से गुजर रहा है, यह तो बीते दस-पंद्रह दिनों में ही लंगोट कसकर अन्ना का अनशन दिखाने वाले चैनलों की बदौलत देखने को मिल रहा है। भ्रष्ट लोगों को जड़ से उखाड़ना कितना कठिन है, यह अब अन्ना टीम और उनके समर्थकों को अब पता चल रहा है। सरकार के मंत्री, संतरी किस तरह हर दिन, हर पल रंग बदलते रहे कि इतने बार रंग बदलने के बाद तो गिरगिट जी को भी शर्म आने लगी होगी खुद पर (जी कहना दरअसल हमनें तब से सीखा, जब से दिग्गी राजा ने ओसामा बिन लादेन को जी कहा था), तो साहेबान, कदरदान, मेहरबान, पेश है भ्रष्टाचार में सर से पांव तक डूबे हमारे देश की दास्तान। अन्ना साहब और उनकी टीम ने अनशन शुरू होने से लेकर एक ही रट लगाए रखी कि जनलोकपाल बिल पास होना चाहिए। अन्ना टीम और लाखों आवाम को शायद मालूम हो, फिर भी बताना जरूरी है कि किसी भी बिल को पास कराने के लिए अधिकतर सरकारी दफ्तरों में एक बंधा-बंधाया कमीशन देना पड़ता है। बिना लिए-दिए तो बाबू के हाथ से फाईल आगे सरकती नहीं, अफसर के दस्तखत होते नहीं, भले ही चार के बजाय चालीस दिन और चार महीने बीत जाएं। तो ऐसे हाल में बिना कुछ लिए-दिए भूखे रहकर अनशन करने वाले अन्ना के जनलोकपाल बिल को सरकार कैसे पास होने देगी! आखिर परंपरा भी कोई चीज है भई ! देश से अंग्रेज तो चले गए, पर अपनी कूटनीति का कुछ हिस्सा यहीं छोड़ गए। लिहाजा बचे हुए हिस्से को आजमाने का काम सरकारें करती रहती हैं, अफसर भी करते हैं कि फूट डालो, राज करो, सामने वाला तो अपने आप ही केकड़ा चाल में फंसकर खत्म हो जाएगा। अनशन के दौरान जितनी बार कुछ नेताओं ने अपने रंग बदले हैं, उससे तो लगता है कि गिरगिट जी को किसी कोर्ट में ऐसे लोगों पर मानहानि का मुकदमा दायर कर देना चाहिए, आखिर उसके हक हिस्से का रंग बदलू काम किन्हीं और लोगों ने कैसे हथिया लिया। लेकिन यह गिरगिट जी की महानता ही है कि उन्होंने ऐसे लोगों को अदालती मामले में नहीं घसीटा और उसे इस बात का फक्र भी है कि उसने अपना धर्म नहीं बदला, भले ही देश के आम लोगों का हक चूसकर मुटियाने वाले भ्रष्टाचारी अपना धर्म-ईमान बदलते रहें।

गोलमाल करने वालों का भी जवाब नहीं, बंधन टूटे ना सारी जिंदगी की तर्ज पर सब एक-दूसरे के पीछे एक जगह पर इकट्ठे हो ही जाते हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत जिस किसी शख्स ने भी बनाई होगी, मुझे उससे शिकायत है, दो अलग-अलग खानदानों के लोगों को भाई बनाने की बजाय चोर-चोर चचेरे भाई नहीं बना सकते थे क्या ? जो पुरूष प्रधान देश में नारियों को कलंकित करने के लिए एक और कहावत गढ़ दी।
यह बात कहावत सुनाने के लिए शुरू नहीं की थी मैंने, असल विषय तो गोलमाल टीम का है, जिसने देश के लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लाखों भोले-भाले बैसाखू, मंटोरा, बुधारू की आंखों में धूल झोंककर टू जी गोलमाल को अंजाम दिया। गोलमाल पार्ट 1 यानि कामनवेल्थ के कुकर्मी और गोलमाल पार्ट 2 यानि टू जी स्पेक्ट्रम के हीरो मय हीरोईन इस समय तिहाड़ में हैं। मतलब यह कि राजनीतिक क्षेत्र के गोलमालिए ‘हम साथ-साथ हैं‘ के स्लोगन को पूरी तरह निभा रहे हैं। मारन पर भी मारक मंत्र फंूका जा चुका है, तिहाड़ का दरवाजा उनके लिए खुल चुका है, अब गए कि तब। मेरे ख्याल से गोलमाल टीम के काफी खिलाड़ी तिहाड़ में इकट्ठे हो चुके हैं। इसलिए कप्तान का चुनाव हो ही जाना चाहिए। तभी तो टीम गोलमाल आगे नए-नए कारनामें कर सकेगी। इसके लिए आमिर खान जैसे आईडियाबाज एक्टर की तरह मेरे दिमाग में भी केमिकल लोचा आना शुरू हो गया है। दरअसल फिल्मों से मुझे बहुत लगाव है, बचपन से ही फिल्में बनाने के सपने देखता था, एकाध बार छत्तीसगढ़िया छालीवुड में ट्राई मारी, तो एक आल इन वन अजूबे कलाकार ने मुझे 440 वोल्ट का झटका दे दिया यह कहकर, कि फिल्म का निर्माता, निर्देशक, स्क्रिप्ट राईटर, डांस डायरेक्टर और हीरो मैं ही बनूंगा। मैंने पूछा-तो फिर मैं क्या करूंगा फिल्म में। आल इन वन ने जवाब दिया- अरे भाई फिल्म को देखने के लिए भी तो कोई चाहिए!
उस दिन से मैं कई दिनों तक फिल्म बनाने के सपने भूल गया, लेकिन तिहाड़ में गोलमाल टीम को इकट्ठा देखकर फिर मेरे दिमाग में फितूर उठा है। गोलमाल सीरीज बनाने वाले फिल्म निर्माता महोदय अगर कहीं यह लेख पढ़ सकें, तो कृपया विचार करें कि गोलमाल, गोलमाल-2, गोलमाल-3 के बाद अब इसी सीरीज को आगे बढ़ाते हुए गोलमाल टीम इन तिहाड़ फिल्म बनाना उचित होगा कि नहीं ? मेरे हिसाब से तो टीम के असली हीरो श्री श्री 1008 कल्लू भैया को बना देना चाहिए, क्योंकि कामनवेल्थ में बिना हाथ-पैर चलाए ही वे असली खिलाड़ी होने का गौरव प्राप्त कर चुके हैं। ये अलग बात है कि इनाम के रूप में उन्हें तिहाड़ में ऐश करने की छूट मिली हुई है। तिहाड़ पहुंचे एक जज महोदय प्रत्यक्ष रूप से कल्लू भैया और जेलर साहब को एक साथ नाश्ता पानी करते देख ही चुके हैं और गोलमाल टीम के खिलाड़ियों को वहां जेल होने के बावजूद खुले में घूमने फिरने की छूट मिली हुई है। एक पर एक फ्री का खेल तो पुराना हो गया, अब तो एक पर पांच, दस फ्री का जमाना आ गया है। तिहाड़ में एक कलमाड़ी भेजो, तो राजा, कनि सहित कईयों को खुलेआम घूमने की 100 प्रतिशत छूट। गोलमाल टीम के कोच फिलहाल बाहर हैं, लेकिन जल्द ही उन्हें भी टीम को कोचिंग देने के लिए तिहाड़ भेजा जाएगा। इसका काउंटडाउन शुरू हो चुका है। मैं अब यह सोचने लगा हूं कि कहीं यह गोलमाल टीम तिहाड़ के अंदर में योजना बनाकर किसी ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय गोलमाल पार्टी‘ जैसी अंतर्राष्ट्रीय पार्टी बना लेगी, तो चोर-चोर चचेरे भाई की कहावत जरूर सार्थक हो जाएगी।

महात्मा गांधी जी यानि एकमात्र, इकलौते हमारे भारत देश के सर्वाधिकार सुरक्षित राष्ट्रपिता। सिल्वर स्क्रीन से लेकर राजनीतिक गलियारों में बापू को एक नया आयाम मिला है उनके विचारों और आदर्शों को, जिसे गांधीगिरी का नाम दिया गया है। अब जब कभी किसी नेता की बात या मांगें नहीं मानी जाती तो उसे बापू की याद आ जाती है और वह गांधीगिरी करके सरकार को झुकाने की कोशिश करने लगता है। ये अलग बात है कि अण्णा जी इस युग के वास्तविक गांधीवादी समाजसेवी हैं। पर अधिकतर गांधीगिरी करने वालों के चेहरों के पीछे एक और चेहरा है। गांधीगिरी करते वक्त ऐसे लफ्फाज, मौकापरस्त और स्वार्थी लोगों के चेहरे के हाव-भाव देखते ही बनते हैं, ऐसा लगता है जैसे वे जन्म से ही बापू के समर्पित समर्थक रहे होंगे। राजकुमार हीरानी ने लगे रहो मुन्नाभाई में जो प्रयोग गांधीगिरी के किए, तो गांधीगिरी का शौक कईयों को लग गया, ऐसे में मेरे शहर के एक युवा नेता ने भी गांधीगिरी दिखाते हुए अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए रास्ते से गुजर रहे वाहन चालकों व पैदल चलने वालों को गुलाब भेंट किए, ताकि उनकी मांगें न मानने वाले अफसरों, नेताओं का गेट वेल सून हो जाए। बुजुर्गों तथा परंपरावादियों से मैं यह सुन-सुनकर थक चुका हूं कि देश के लोग अब गांधीजी को भूल गए। कौन कहता है कि गांधी जी भुला दिए गए, ये जरूर हो सकता है कि उनके आदर्श, उनके विचारों का लोग पालन नहीं कर रहे या करना चाहते। लेकिन गांधी जी सर्वव्यापी हैं, जैसे कण-कण में भगवान है, ठीक उसी तरह हर जेब-जेब में बापू हैं। भले ही वे किसी के दिल में मिलें न मिलें पर बापू की तस्वीर हर किसी की जेब में मिल जाएगी हरे, लाल, नीले नोटों पर। बताईये भला, बापू को अगर भुला देते तो उन्हें अपनी जेब में थोड़े रखते !
सत्याग्रह से अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने वाले बापू अब स्वार्थ साधने की चीज हो गए। मामला जमा नही ंतो गांधीगिरी कर लो, सेटिंग हो गई तो ठीक, वरना इसी बहाने कम से कम छवि तो सुधर जाएगी ! गांधीगिरी का नुस्खा बड़े शहरों से होते हुए कस्बों और गांवों तक पहुंच गया है। भारत की आत्मा गांवों में बसती है, कहने वाले बापू को शायद अंदाजा नहीं रहा होगा कि उन भोले-भाले गांववालों के नाम पर जब केन्द्र सरकार से गांधी की तस्वीर लगे लाखों करोड़ों रूपए निकलते हैं तो उसका महज 10 प्रतिशत हिस्सा ही वहां तक पहुंच पाता है यानि 10 प्रतिशत बापू ही गांव वालों तक पहुंच पाते हैं और 90 प्रतिशत बापू की तस्वीर वाले हरे-हरे नोट किधर जाते हैं, किसी अफसर, नेता के भारतीय बैंक एकाउन्ट में या फिर स्विस बैंक की शोभा बनते हैं ? जिस तरह पानी जीवन का अहम् हिस्सा है और पानी बचाने की मुहिम देश भर में चलती रहती है, इसके चलते कहावत भी गढ़ दी गई कि बिन पानी सब सून, पर मेरे विचार में तो गांधी के विचारों को आत्मसात करने की जरूरत है, उसे दिल में, दिमाग में बसाने की जरूरत है। जेब में रखे गांधी तो आज तुम्हारे पास, कल किसी और के पास चले जाएंगे, पर दिल में बसे गांधी को कोई कैसे चुरा सकेगा या छीन सकेगा ? गांधी जी हर तरह से हमारे जीवन में उपयोगी थे और रहेंगे, दिल में बसाया तो जीवन सुधर जाएगा, जेब और तिजोरियों के लायक समझोगे तो भी काम आएंगे। इसलिए नया नारा तो अब बिन गांधी सब सून है।

सत्ता की कुर्सी पर बैठे आलम बरदारों को झटके पर झटके लग रहे थे, पहले अण्णा जी, बाद में बाबाजी ने सरकार को 440 नहीं बल्कि 880 वोल्ट के झटके दिए। अब इन झटकों का असर कम होता जा रहा है। दरअसल सवाल एक दो भ्रष्टों का नहीं है, हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे की आड़ में कम से कम हम चीन से उसकी विश्व प्रसिध्द दीवार तो उधार मांग ही सकते हैं और हो सकता है भ्रष्टाचारियों की सूची चस्पा करने के लिए तो चीन की 2 हजार किलोमीटर लंबी दीवार भी छोटी पड़ जाए! देश की अकूत संपत्ति कभी किसी आईएएस अफसर के घरों और बैंक लाकरों से मिल रही है, कभी जनता के सेवक नेताओं, तो कभी धर्म के ठेकेदारों के पास से। पर अपने देश की आधे से अधिक जनता गरीब है, किसलिए ? इसलिए कि कलयुग में तो भ्रष्टों की शरण में स्वर्ग बसता है बाबू साहब, अफसर भ्रष्ट नहीं होंगे तो भ्रष्टों के चेहरे की चमक कैसे बढ़ेगी, आसमान छूती इमारतों और आलीशान शानो-शौकत का क्या होगा!
मेरा एक मित्र भी पहले भ्रष्टाचार को लेकर खासा परेशान था। इस मुद्दे पर आए दिन वह भड़कता रहता था। भ्रष्टों को सूली पर चढ़ा देना चाहिए, फांसी पर लटका देना चाहिए, सरे चौराहे बांधकर हंटर लगाने चाहिए, जैसे लफ्ज उसके तकिया कलाम हो गए थे। एक बार उसका पाला भी सरकारी लोगों से पड़ गया। तहसील में प्रमाण पत्र बनवाने गया तो वहां के वंदनीय कर्मचारियों ने उसे इतने बार अपने दफ्तर के चक्कर लगवाए कि उसने तो प्रमाण पत्र बनवाने का इरादा ही छोड़ दिया। मुझसे कहा-यार, ये सरकारी सिस्टम आखिर है क्या, पचीस दिन हो गए एक प्रमाण पत्र के लिए, फिर भी नहीं बना। मैंने कहा-अरे बंधु, वेरी सिंपल, 25 मिनट में तेरा काम हो जाता, लेकिन तुमने वहां के सिस्टम को समझा ही नहीं या समझना नहीं चाहा। बात सिर्फ पचास-सौ रूपए की है, जिसके लिए तूने अपना हजारों रूपए कीमती वक्त बरबाद कर दिया।
मेरी बात मित्र को कुछ-कुछ समझ में आने लगी। दूसरे ही दिन वह चहकता हुआ मिला। क्या हुआ, बहुत लबलबा रहे हो मित्र, मैंने कहा, तो उसने तपाक से जवाब दिया - वाह यार, तेरा फार्मूला तो काम कर गया। दफ्तर के बाबू को गांधी जी के दर्शन करा दिए, तो फटाफट काम हो गया, पचीस नहीं, सिर्फ पंद्रह मिनट में।
मेरे मित्र को फार्मूला भा गया। आजकल वह भी एक सरकारी नौकरी में है और इस फार्मूले का भरपूर फायदा उठा रहा है। शाम को जब वह अपने दफ्तर से लौटता है, तो उसकी जेबों में भरपूर हरियाली होती है।
ऐसे ही एक सरकारी कार्यालय का कोड वर्ड बन गया था आरबीआई। जब भी कोई व्यक्ति आरबीआई का पालन नहीं करता था, उसकी फाईल अटका दी जाती थी। अफसर सबके सामने खुलेआम कहता था, आरबीआई का कागज नहीं लगाया है, कैसे फाईल पास होगी। बहुत दिनों तक मैं परेशान रहा कि आखिर ये आरबीआई क्या है। फिर मैंने वहां के एक खासमखास कर्मचारी को पटाया, उसे एक गांधी जी की तस्वीर से सुसज्जित हरा पत्ता थमाया और पूछ लिया। तब मेरी समझ में आया कि आखिर यह आरबीआई क्या बला है। लेकिन मैं भी आपको मुफ्त में नहीं बताउंगा आरबीआई का मतलब। जिन बंधुओं को आरबीआई की महिमा समझ में न आए वे मुझसे संपर्क करके जानकारी ले सकते हैं।

जीवन में मांग का बड़ा महत्व है, वैसे मांग तो हर किसी के सिर में बालों के बीच बनी होती है, कुछ लोगों को छोड़कर। लेकिन मैं उस मांग की बात कर रहा हूं, जिसे अंग्रेजी में डिमांड कहा जाता है। दरअसल जब से हरिओम शरण जी के गाए भजन ‘दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया‘ को सुना है, तब से मुझे भी लगता है कि वाकई में कोई अरब-खरबपति हो या फिर बेघर बंदा, सभी कुछ न कुछ मांग रहे हैं, कोई ईश्वर से, तो कोई इंसान से। यह जरूरी नहीं कि जो मांगा वो मिल जाए, लेकिन मांगना हमारा परम धर्म है। जैसे अन्ना जी सरकार से लोकपाल बिल की मांग पर अड़े हुए हैं और बाबा जी काले धन को वापस लाने के लिए। वर्षों पहले बंटवारा कर चुका बड़ा भाई भारत, छोटे भाई पाकिस्तान से बार-बार अपनी कारस्तानियां रोकने की मांग कर रहा है, ये अलग बात है कि छोटे भाई ने अब तक बड़े भाई की मांग नहीं मानी है। मांगने से मिल जाए तो ठीक, वरना दबंग प्रवृत्ति के लोग छीनने में यकीन रखते हैं। मांगने की संस्कृति कब से शुरू हुई, इसका पता पुराने से पुराने इतिहास में भी नहीं मिलता। क्योंकि सतयुग, द्वापर, तेत्रायुग हो या कलयुग, हर युग में लोग मांगते ही दिखते हैं। भले ही कोई टाटा, बिरला, अंबानी, मित्तल की तरह धनकुबेर हो जाए, लेकिन मांगना नहीं छोड़ेगा, मांगने का स्तर अलग हो सकता है, पर मांगने के लिए हर कोई तैयार है।
कहावत है कि मांगो उसी से, जो दे दे खुशी से, और कहे न किसी से, लेकिन इस कहावत पर अमल करता कोई दिखता नहीं है। लोकपाल बिल के लिए मांग-मांग कर थक चुके समाजसेवी अब भी अड़े हुए हैं। ऐसा लग रहा है कि लोकपाल बिल सरकार के पास बचा एकमात्र वरदान है, जो छिन गया तो फिर भगवान ही भला करे। अरे भाई, सीधी सी बात है कि किसी भी दुकान से सामान खरीदने के बाद उसका बिल मिलना चाहिए, लेकिन अधिकतर लोगों को सामान का बिल नहीं दिया जाता, तो सरकार कैसे लोकपाल बिल जनता को दे सकती है ? यह कोई छोटा-मोटा खिलौना या झुनझुना तो है नहीं, जो जनता को पुचकारने के लिए उसके हाथ में दे दिया। भले ही यह आज जोकपाल बना रहे, पर कल जरूर लोकपाल बन जाएगा। अहम बात ये है कि मांगने की कला का असल फायदा वे लोग उठाते हैं, जिन्हें चम्मचगिरी का खासा अनुभव होता है। मांगने के परमधर्म से मैं खासा परेशान हूं, मेरा एकमात्र सपूत आजकल आईफोन, ब्लेकबेरी मांग रहा है और बिटिया को स्कूटी चाहिए, इकलौती घरवाली के क्या कहने, क्योंकि उसे तो प्यारे हैं सोने-चांदी, हीरे के गहने। मैं तो यह भी सोचने लगा हूं कि रात को मोहल्ले में घूम-घूमकर, सीटी बजाकर लोगों को होशियार करने के लिए चिल्लाने वाले नेपाली पहरेदार को अपना तकिया-कलाम ‘जागते रहो‘ से बदलकर ‘‘मांगते रहो‘‘ कर देना चाहिए। क्योंकि सारी दुनिया मांग ही तो रही है और मैं भी मांगने की संस्कृति से बचा नहीं हूं।

वार्ता करना अच्छी बात है, कहावत है कि कुछ चीजों का हल सिर्फ वार्ता से ही संभव है। जैसे कोई आपको गालियां दे, तो उसे भला बुरा कहने की बजाय वार्ता कीजिए, पीट-पाट दे तो भी वार्ता करिए और अगर आपको धोबी पछाड़ देकर अस्पताल भी पहुंचा दे, तब भी वार्ता करना ही उचित है ! क्योंकि हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है। लादेन का जो हश्र अमेरिका ने किया, वह तो ओबामा ताउ की दादागिरी है। भारतीय शैली से अपरिचित ओबामा जी क्या जानें कि प्रेम भी कोई चीज है, वार्ता से हल निकलेगा ही, आज नहीं तो कल सही। ठीक वैसे ही, जैसे अचानक आंधी-तूफान की तरह देश में शुरू हुए भ्रष्टाचार आंदोलन पर सरकार ने वार्ता करने की बात कही, बाद में सिविल सोसायटी और सरकार के प्रतिनिधियों की वार्ता फेल हो गई। अमेरिका के पहले राष्ट्रपति महान अब्राहम लिंकन की कहानी ने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया है। लिंकन ने कई बार फेल होने के बाद आखिरकार सफलता हासिल कर ही ली। इसी तरह वार्ता फेल होने पर आने वाले समय में उसके सफल होने की संभावना बनी ही रहती है। ऐसे मौकों पर घबराना नहीं चाहिए। मैं एैसी स्थिति से गुजर चुका हूं, इसलिए समझ सकता हूं कि वार्ता कितनी महत्वपूर्ण चीज है।
मेरे एक परिचित को शहर के दबंग ने पीट दिया, उसने मुझसे गुहार लगाई, मैं ठहरा कलमकार, कलम चलाना आता है, हाथ पैर चलाने के गुर सीखे ही नहीं। सो मैने उसे सलाह दी कि उस दबंग से वार्ता करूंगा। परिचित ने मामले में रिपोर्ट दर्ज करा दी। थानेदार साहब ने भी उसे वही सलाह दी कि दबंग को बुलाकर बातचीत करेंगे। दोनों से असंतुष्ट परिचित महोदय आखिरकार मंत्री जी के पास पहुंच गए, मंत्री जी ने भी उसे वार्ता करने का आश्वासन दिया। अंत में दबंग से पिट चुका परिचित वार्ता करने को सहमत हो गया।
वैसे भी हमारे देश की कमान संभालने वाले वार्ता को कुछ अधिक महत्व देते आए हैं। मामला चाहे आतंकवाद का हो, मुंबई बम विस्फोट का या फिर अन्य किसी खतरे का। सरकार वार्ता करना चाहती है, वार्ता होती है पर फेल हो जाती है। भला इसमें किसी का क्या दोष ? वार्ता तो फेल होने के लिए ही होती है, अगर पास हो जाती तो देश की आधी समस्याएं खुद ब खुद दूर हो जाती। भले ही इन वार्ताओं के मायने गांव में रहने वाले भोले भाले टेटकू, समारू, मंटोरा, बुधवारा के समझ में न आएं। लेकिन उनकी आगामी पीढ़ी सरकारी योजनाओं से लाभान्वित होकर ऐसी चीजों का महत्व समझ सकेंगी, यह उम्मीद है। सरकार के खिलाफ लंगोटी कसकर राजनीति के मैदान में उतरने को तैयार बाबा रामदेव के शंखनाद ने सियासी फिजां का तापमान भले ही बढ़ा दिया है। लेकिन सरकार के कारिंदों ने उनकी मांगों को बैरंग लिफाफे में भरकर कूड़ेदान के डिब्बे में डाल दिया, यानि वार्ता फेल हो गई है। ये वार्ताओं का देश है, जहां विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का उदाहरण दिया जाता है, हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, आपस में सब भाई-भाई। इसीलिए वार्ताएं जरूरी हैं, अगर वार्ता फेल होती है तो फिर से वार्ता करनी चाहिए, करते रहनी चाहिए, इसका कोई अंतिम परिणाम भले न निकले, लेकिन कुछ न कुछ तो हासिल होगा ही। मैं तो अब यह सोचने लगा हूं कि वार्ता के मामले में भी अपना देश गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज करा सकता है। वार्ता होती रहेगी, फेल भी होगी, फिर वार्ता होगी। बढ़ती उम्र के साथ-साथ मेरे सुपुत्र को दुनियादारी की थोड़ी समझ आने लगी है, कभी-कभी वह मुझसे पूछने लगता है आखिर वार्ता नाम का यह पप्पू कब पास होगा ?

मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती। मगर हमारे देश की मिट्टी को आजकल क्या हो गया है। सोना, हीरा, मोती तो पीछे रह गए नेताओं की खरपतवार मतलब पैदावार ज्यादा ही होने लगी है। राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या और नेताओं की अधिक पैदावार ने कई तरह के भ्रम पैदा कर दिए हैं। पता ही नहीं चलता कि कौन किस दल का नेता है। अवसरवादिता की राजनीति ने भी नेतागिरी की महिमा को तेजी से बढ़ाया है। मुद्दा भ्रष्टाचार का हो या कालेधन का या फिर किसानों पर हो रहे अत्याचार का, अवसर की बहती गंगा में सिर्फ हाथ धोने नहीं, बल्कि घंटों तक डुबकियां लगा-लगाकर नहाने के लिए नेतागण तैयार रहते हैं। ऐसे ही हमारे क्षेत्र के एक नेताजी भी हैं। बिजली बनाने वाले उद्योग ने उनकी जमीन नहीं खरीदी, तो बैठ गए किसानों की आड़ लेकर आंदोलन पर। गरीब भूमिपुत्रों के हितवा बनकर कई दिनों तक माईक पर हल्ला मचाते रहे, उद्योग प्रबंधन का मुर्दाबाद करते रहे। महीने भर बाद उन्होंने पाला बदल दिया, किसान वहीं के वहीं रह गए, नेताजी की नेतागिरी चमक गई और वे उद्योग प्रबंधन के करीबी हो गए। अब अपने लोगों को ठेका, नौकरी दिलाने का काम भी शुरू कर दिया है। देखा जाए तो यह एक तरह का दोगलापन है, लेकिन नेतागिरी का कोई सुर नहीं होता, मुंह-पूंछ और जबान नहीं होती, इसलिए मौकापरस्त बनना ही नेतागिरी का सबसे बड़ा गुण है। मौका मिला, स्वार्थ सिध्द कर लिया, राजनीति की भाषा में इसे कूटनीति कहते हैं, मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में। दरअसल बढ़ती राजनीति का एक और कारण भी है। पहले सिर्फ नेता राजनीति करते थे, अब तो हर क्षेत्र में राजनीति की बयार बह रही है, अधिकारी, कर्मचारी, पत्रकार, व्यपारी, वकील भी राजनीति की महिमा से बच नहीं सके हैं। इसलिए हमें तो लगता है कि जिस तरह ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में है, उसी तरह राजनीति भी सर्वव्यापी हो गई है। अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग शुरू की तो उस पर राजनीति शुरू हो गई। भले ही भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त आम लोगों ने बढ़ चढ़कर अन्ना के आंदोलन को हवा दी, लेकिन नेताओं ने उनके आंदोलन का पहिया पंक्चर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब बाबा रामदेव के आगामी सत्याग्रह से सरकार को झुरझुरी आने लगी है। अरे भाई, सत्तासीन पार्टी की डुगडुगी बने राजा साहब, इस पर कोई टिप्पणी नहीं करोगे क्या ? वैसे भी आजकल यूपी की मादाम की नेतागिरी पर देश के लोगों की नजर है। भट्टा पारसौल में युवराज का दखल उनके आंखों की किरकिरी बन ही चुका है। देखना यह है कि नेतागिरी चमकाने के स्वर्णिम समय का लाभ कौन-कौन उठा पाते हैं। क्या मायाराज-मुलायम कुनबे के बीच युवराज की राजनीति चमक पाएगी ?

इक चतुर नार, करके सिंगार, इक चतुर नार बड़ी होशियार, दूरदर्शन चैनल पर सुबह-सुबह यह गाना दिखाया जा रहा था। मैं पड़ोसन के मजे ले रहा था, मेरा मतलब है पड़ोसन फिल्म के गाने का आनंद, (अगर पत्नी महोदया ने सुन लिया कि पड़ोसन का आनंद ले रहे थे, तो पूरा घर सिर पर उठा लेगी।) श्रीमती जी ने चाय लाकर टेबल पर पटकी और आंखें तरेरते हुए कहा, जल्दी से चाय पीजिए और बाजार से जाकर सब्जी लाईए। ये चतुर नार का राग अलापना बंद कीजिए। मैंने बड़े प्यार से पत्नी को पुचकारते हुए कहा अरी भागवान, तुमने शायद अपने आपको यानि नारी शक्ति को पहचाना नहीं है। पत्नी ने मुझे इस तरह देखा, जैसे मैं कोई अजूबा हूं। मैंने फिर अपना तीर फेंका, अरे तुमने देखा नहीं, चुनाव में जो नतीजे आए हैं, नारियों ने राजनीति में कितनी उठापटक मचा दी है ? जया अम्मा का तम्मा तम्मा हो गया और ममता दीदी का राजनीतिक सफर सुपर डीलक्स रेल की तरह दौड़ने लगा है।
एकता कपूर के सीरीयल की बात होती तो पत्नी महोदया सारा कामकाज छोड़कर घंटों तक उसका श्रवण करती। पर उन्हें राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, सो हुंह कहते हुए किचन की ओर रूख कर लिया। मैं भी ठहरा मुंह की बीमारी से ग्रसित प्राणी, कोई यदि फोन पर मुझसे एक पंक्ति का सवाल भी पूछता था तो मैं उसे दिन, समय, घटना, अपने विचारों सहित पूरी कहानी-किस्सा सुनाए बगैर नहीं रह पाता, आखिर अपने ज्ञान का भंडार कहां और किस पर लुटाउं ? लिहाजा आदत जाती नहीं थी। पत्नी को मेरे अंदर छलक रहे ज्ञान से कोई मतलब नहीं था, चौका चूल्हे, गहने सिंगार और नारी फेम धारावाहिकों से उबर पाती, तभी तो उसे पता चलता कि नारी कितनी भारी है, जिसने 34 बरस के लाल को पीला करके रख दिया।
बहरहाल मैं बाजार की ओर सब्जी लेने के लिए निकल लिया। रास्ते में मिल गए मेरे एक लंगोटिया यार, जीवन में कभी लंगोटी पहनी नहीं, फिर भी हम लंगोटिया थे। मित्र ने कहा, और सुनाओ क्या हाल है ? मैं तो नारी महिमा मंडित करने के लिए पहले से ही उबला जा रहा था, कोई इसे सुनने को तैयार हुआ, मानो कोई मनचाही मुराद मिल गई। मैंने कहा, क्या क्या बताउं मित्र, देश इन दिनों उथलपुथल से जूझ रहा है। नारी सशक्तिकरण चरम पर है। मित्र ने कहा, क्या हुआ, भौजाई ने फिर से तुम्हारा बाजा बजा दिया क्या। मैंने कहा, अरे मित्र पहले मेरी भी तो सुनो, देश में इन दिनों नारी राज चल रहा है, रामायण से लेकर महाभारत तक और अब भारतीय राजनीति पर भी नारी भारी पड़ने लगी है। शीला ताई और माया मैडम तो पहले से ही राजकाज संभाल रही थीं, अब ममता दीदी और जया अम्मा ने भी अच्छे अच्छों को धूल चटा दी। वैसे भी देश की महामहिमा और केंद्र की सत्ता पर कठपुतलियां नचाने वाली मैडम ने नारी महिमा को मंडित किया है, यह अलग बात है कि राडियों और राखियों ने नारी महिमा को थोड़ा चूना लगाया है। लेकिन ओव्हरआल नारी का सबलापन अब देश दुनिया में दिखने लगा है। मित्र ने कहा, तो इसमें नया क्या है ? सदियों से नारी अपनी करामात दिखाती रही है। मैंने तनिक आवेश में आते हुए कहा, अरे तुमने अभी तक ठीक से पहचाना नहीं नारी शक्ति को, जब अबलापन का चोला नारी उतार फेंकती है, तो वह रणचंडी बन जाती है। महाभारत के कौरवों का नाश करा देती है। विश्वामित्र की तपस्या पर पानी फेर देती है। मित्र ने कहा बस, बस आज इतना ही, बाकी कल सुनेंगे। मुझे भी याद आया कि अगर समय पर सब्जी लेकर घर नहीं पहुंचा, तो घर में महाभारत मच जाएगी, रामायण के राम ने चौदह बरस वनवास झेला था, कलयुग में शार्टकट का जमाना है, लिहाजा मुझे दिन भर का वनवास झेलना पड़ेगा, रणचंडी ने अगर बेलन उठा लिया तो फिर खैर नहीं, महारानी लक्ष्मीबाई बनने में देर नहीं लगेगी। मैं तुरंत बाजार की तरफ भागा, वहां से आनन फानन सब्जी खरीदी और वापस घर पहुंचकर ही दम लिया। नारी शक्ति से मैं तो आए दिन परिचित होता रहता हूं, आपको भी नारी महिमा का कुछ ज्ञान हासिल हुआ या नहीं ?

यह तो अच्छा हुआ कि अगले कुछ दिनों में बाबू साहब सात फेरों के सात वचन लेने का जुगाड़ कर चुके हैं, ससुराल पक्ष भी मजबूत था, सो जिंदगी की आधी फिकर मिट गई थी। वैसे भी आजकल लोगों को अपना ससुराल अकबर का खजाना लगने लगा है, जब जी चाहा, जितना चाहा, खजाने से निकाल लिया। यह अलग बात है कि मैं अब तक इस खजाने का सुख नहीं पा सका हूं।
दूल्हा बिकता है फिल्म में राज बब्बर अपनी मजबूरियों की वजह से बिक जाता है, पर अब तो बिना मजबूरियों के ही लोग अपने सुपुत्रों के लिए तोल मोल के बोल करने को दुकान खोले तैयार बैठे हैं। दहेज में क्या-क्या चाहिए, इसकी बड़ी सी फेहरिस्त बना कर वधु पक्ष को इस तरह सौंप देते हैं जैसे वह किसी फाईव स्टार हाटल का मेनू कार्ड हो। भले ही निजी स्कूल, प्रशिक्षण संस्थान, डाक्टर अपनी सेवाओं की फीस अब तक फिक्स करें, पर आधुनिकता की बढ़ती चकाचौंध में दूल्हों के रेट लगभग तय हो चुके हैं। लड़का किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी है, रेट 2 लाख रूपए, शिक्षाकर्मी है-तीन लाख, क्लर्क है-चार लाख, अधिकारी है-पांच लाख, इंजीनियर, डाक्टर है- 8 से 10 लाख, उससे भी उंचे पद पर है तो 10 से 25 लाख रूपए तक मूल्यवान है। आखिर मां-बाप ने पैदा किया, उस पर खर्च किया, पढ़ाया लिखाया, खिलाया पिलाया, तो उसका हर्जाना कौन देगा ? मेरे एक मित्र की बहन की मंगनी हुई तो लड़के वालों ने कोई दहेज नहीं मांगा, मुझे आश्चर्य होने लगा, वाह भाई, ये तो कमाल हो गया। इतना अच्छा परिवार तो हमें हजारों क्या लाखों में एक मिलेगा। जब मैंने मित्र को बधाई दी, तो मित्र महोदय का चेहरा उदास हो गया। मैंने कहा, यार, ये उदासी क्यों ? मित्र ने कहा-लड़का इंजीनियर है, आलीशान मकान है, बंगला है गाड़ी है, खाता पीता परिवार है। लेकिन उसके घरवालों ने कह दिया कि जो कुछ भी दोगे वह तुम्हारी बहन का ही होगा। अगर कार नहीं दोगे तो वह अपने पति के साथ मार्केटिंग करने कैसे जाएगी, पचीस-पचास तोले स्वर्ण आभूषण के बिना तो वह कहीं समाज में उठ बैठ नहीं सकेगी, दो-चार लाख उसके हाथ में नकद नहीं रहेंगे तो क्या वह बार बार अपने पति के सामने हाथ फैलाएगी ? बस हमें तो कुछ नहीं चाहिए, ये सब तो तुम्हारी बहन के काम ही आएगा, हमारे पास तो किसी चीज की कमी नहीं है।
दहेज लेने का यह नायाब तरीका मुझे तो पहली बार ही सुनने में आया था, मित्र के सिर पर उसके होने वाले समधियों ने चांदी का जूता मारा था। मैं अपने कमरे में बैठा मित्र के साथ विचार विमर्श कर ही रहा था कि दूसरे कमरे से मेरी अर्धांगिनी की कौए की तरह सुमधुर आवाज आई, अजी सुनते हो, अब ऐसे ही बैठे रहोगे कि कुछ करोगे भी। मैंने पूछा, क्या हुआ भागवान। पत्नी ने फिर अपना कंठ खोला - तुम्हें याद नहीं कल ननद जी को देखने आने वाले हैं, लड़का शिक्षाकर्मी है, समधियों को देने के लिए कुछ दान दहेज खरीदने जाना है कि नहीं ? मैंने मित्र को चाय पिला कर विदा किया, फिर पत्नी से कहा, हमारी शादी जल्दी हो गई है क्या ? क्यों जी, अब होती तो क्या होता। कुछ नहीं, बस सोच रहा हूं कि इस दौर में शादी होती तो कम से कम मैं दो चार लाख का आसामी तो होता, ससुर जी से मिली मोटरसायकिल पर इठलाता, तुम्हें घुमाने ले जाता, मेरा तो नुकसान हो गया ? पत्नी तुनक गई - कैसा नुकसान, वह तो अच्छा हुआ कि मेरे पिताजी ने तुम्हें पसंद कर लिया, तुम्हारे गले बांध दिया, वरना तुम तो कुंवारे ही रह जाते।
मैंने शुक्र मनाया कि चलो मेरे ससुर जी को कुछ रहम तो आया और मुझे अपनी चहेती सौंप दी थी। अब मैं आइडिये की जुगाड़ में हूं कि मेरे ससुरे ने पंद्रह साल पहले जो मेरा नुकसान किया था, उसकी वसूली कर सकूं, आपके पास कोई आईडिया है क्या ?

मैं समय हूं, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग, सबके इतिहास का मैं गवाह रहा हूं। देवों, दानवों, मानवों की जीवनशैली, रहन-सहन और कर्म-दुष्कर्म का हिसाब भी है मेरे पास।
कलयुग में हो रही काली करतूतों का काला चिट्ठा मैं संजोकर रखता हूं। अन्य युगों में तो ऐसे दानव हुए ही नहीं, जैसे इस युग में हुए हैं। विदेशों में काला धन जमाकर, सत्ता की कुर्सी पर बैठकर इठलाते हुए, गरीबों के हक का खून चूसकर अमानुष को भी पीछे छोड़ देते हैं। शिवजी ने एक भस्मासुर पैदा किया, लेकिन कलयुग में तो हर जगह भस्मासुर रक्तबीज की तरह बढ़ते जा रहे हैं।
मैं हड़बड़ाकर उठा, ये अचानक महाभारत सीरीयल में सुनाई देने वाली भारी-भरकम आवाज मेरे सपने में कैसे ? काफी देर तक सोचता रहा, फिर मैं तैयार हो कर दफ्तर के लिए निकल पड़ा। दफ्तर पहुंचते ही सामना हुआ राजेश्वर बाबू से। आंखों पर चश्मा चढ़ाए हुए वे अपनी ड्यूटी के वक्त भी दिन भर मुंह में पान का बीड़ा भरे रहते थे और भैंस की तरह जुगाली करते रहते थे। जैसे ही मैं दफ्तर पहुंचा, उन्होंने अपनी खीसें निपोरते हुए कहा- क्या भाई साहब, आज तो आप खूब जंच रहे हो। मैंने कहा - कुछ खास नहीं, सब सामान्य है, तुम बताओ, खुशी से इतने काहे फूले जा रहे हो भई, कोई लाटरी लग गई क्या ? राजेश्वर बाबू किसी फिल्म के निर्देशक की भांति गंभीर होते हुए बोले - देखो भई अंतर्राष्ट्रीय परिदृष्य देखो, क्या तुम्हें नहीं लग रहा है कि देश में इन दिनों काफी बदलाव आ रहे हैं। मैंने कहा - इसमें क्या खास बात है। हाथ नचाते हुए वे बोले - अरे वाह, दुनिया भर की लिखते हो, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि फिर से एक बार शिवजी-भस्मासुर वाली कहानी रिपीट हो गई। एक बार भस्मासुर को शिवजी ने वरदान दे दिया था, जिसके सिर भी हाथ रखोगे तो वह भस्म हो जाएगा। उसके बाद भस्मासुर का दिमाग फिर गया और वह शिवजी को ही कल्टी करने में भिड़ गया था। ऐसे ही दुनिया के सबसे मोस्ट वांटेड लादेन भाई साहब को अमेरिका ने खूब शह दी, बाद में जब उसने अमेरिका के सिर पे हाथ रखकर उसे भस्म करना शुरू किया, तो क्या हुआ, देख लिया।
मैंने भी अपना ज्ञान बघारते हुए उसे बताया, अरे तुम्हें मालूम नहीं, लिट्टे का सच भूल गए क्या, जिसने उन्हें शह दी उसे ही मिटाने चले, बाद में प्रभाकरण का क्या हुआ ? सबक यही है कि भस्मासुर बनने की कोशिश न करो। राजेश्वर बाबू ने फिर से एक तीर छोड़ा - लेकिन भाई साहब, एक बात समझ में नहीं आई कि आखिर लादेन को समुद्र के अंदर काहे दफनाया गया ?
मैंने अपने ज्ञान चक्षुओं को मिचकाया, फिर कहा, अरे बांगड़ू, रामसे ब्रदर्स की फिल्म नहीं देखी है क्या ? जिस तरह भूत-पिशाच को मारकर दफनाने के बाद कुछ तांत्रिक उसे फिर से जिंदा कर देते हैं और वह फिर से आतंक मचाने लग जाता है। उसी तरह अगर कल को लादेन के पनाहगार, खैरख्वाह उसे जिंदा करने लग भी गए, तो उसका कोई फायदा नही होगा।
यही तो महामहिम ओबामा की चतुराई है, जिसने रामसे ब्रदर्स की भूतहा फिल्मों से सबक लेते हुए आतंक के पिशाच लादेन को गहरे समुद्र में इसलिए दफना दिया, कि अब अगर उसे किसी ने जिंदा भी कर दिया, तोे पानी के उपर आकर सांस लेने से पहले ही उसका दम घुट जाएगा। यह सही है कि अभी आतंक के कई भूत-पिशाच बाकी हैं, लेकिन जैसे भूतकाल में सद्दाम निपट गए, वर्तमान में लादेन, भविष्य में फिर किसी भस्मासुर की बारी होगी।

साहब मोहल्ले में नए-नए आए थे। उनकी चालढाल, रहन-सहन, अदाएं, नखरे लोगों को हजम नहीं हो पाते थे। दरअसल हाजमोला खाने से पेट का खाना तो हजम हो सकता है, बाकी चीजें नहीं। तो साहेबान, रोज नई नई गाडियों में सवार होकर आते, मोहल्ले भर में दो तीन बार अपनी गाड़ी घुमाते और फिर घर के अंदर घुस जाते। मैं भी ठहरा खबरनवीस, साहब की चर्चा लोगों के मुख से सुन सुनकर मेरे कान पक गए थे, चर्चा भी इतनी ज्यादा कि ब्रिटेन में हो रही राजशाही शादी के किस्से भी शर्मा जाएं। लिहाजा मैं भी झल्ला गया कि आखिर साहब हैं कौन सी हस्ती जो उनकी इतनी चर्चा पूरे मोहल्ले ही नहीं, शहर में भी फैली हुई है। जानखिलावन जासूस की तरह मैंने भी ठान लिया कि साहब के बारे में सबकुछ पता करना है। सबसे पहले तो उनके बंगले के सामने पहुंचा। इधर उधर ताका-झांका, फिर गेट के भीतर बैठे दिख रहे संतरी को धीरे से आवाज लगाई। संतरी गेट के पास आकर खड़ा हो गया।
मैंने कहा-अरे मुसद्दी भाई, ये नए साहब कौन हैं, कुछ बताओ तो सही। संतरी ने कान में धीरे से फुसफुसाकर साहब के बारे में बताया। साहब की पहुंच और कलाओं को सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। फिर भी सोचा कि अब साहब के दफ्तर का भी जरा हाल-चाल देख लूं। सरकारी दफ्तरों में वैसे भी आए दिन जाना पड़ता है, तो वहां के बड़े साहबों आई मीन चपरासियों से मेरी काफी जान पहचान भी है। किसी भी साहब के बारे में चपरासी से अच्छी जानकारी अन्य कोई नहीं दे सकता। यही तो कला है बाकी सब विज्ञान है। तो मैंने साहब के दफ्तर पहुंचकर उनके कमरे के बाहर बैठे चपरासी को पुचकारा, किसी तरह लहटाया और साहब के कमरे में प्रवेश किया। मैंने कहा-साहब जी नमस्कार। फाईलों पर कुछ लिख रहे साहब ने सिर उठाकर मुझे देखा, फिर बेरूखी भरे अंदाज में सिर हिलाया और कहा - कहिए। मैंने अपना परिचय दिया। वे अपनी फाईलों पर लिखते हुए व्यस्त रहे। मैंने कमरे में नजर दौड़ाई। एक कोने में चाय काफी बनाने वाली मशीन, दूसरे कोने में प्यारा सा फ्रिज, साहब की टेबल से कुछ दूर एक कम्प्यूटर रखा हुआ था। मैं तो हैरान हो गया साहब के ठाठ देखकर। तभी एक बाबू ने कई फाईलें लेकर कमरे में प्रवेश किया। साहब के सामने फाईले रखकर उन्हें नमस्कार किया। साहब ने सिर हिलाया और चपरासी से कहा - ठीक है सामने वाली पार्टी को घर पर भेज देना, बाकी सब मैं देख लूंगा। मैं हैरान सा साहब की स्टाईल देख रहा था। साहब की कलाएं तो चन्द्रमा की कलाओं से ज्यादा तेज थीं। फिर मैंने साहब से विदा लिया और उनके कमरे से बाहर हो गया। चपरासी ने पूछा-क्या हुआ भईये। मैने कहा- साहब तो कुछ कहते ही नहीं। चपरासी ने कहा-राज की बात बताउं भईये, उन्हें फाईलें निपटाना अच्छी तरह आता है, किसी भी तरह का गड़बड़झाला हो, लंद-फंद का झमेला हो, साहब बिंदास होकर सबका काम कर देते हैं। लक्ष्मी जी के भक्त हैं, उनका आदेश कभी टालते नहीं। तभी तो साहब के बंगले के बाहर रोज नई-नई गाड़ियां खड़ी दिखती हैं। उद्योगपति आगे-पीछे फिरते हैं, साहब के अंदर जबरदस्त कला है। जब भी कोई उपरवाला साहब आता है, उसे चिकनी चुपड़ी, बड़ी-बड़ी बातें करके, सेवा-सत्कार करके वापस भेज देते हैं, यह उनका विज्ञान है।
सच ही था जो चपरासी बता रहा है, साहब का रूआब, अदा कुछ अलग ही थे। कुछ दिन बीते, साहब हमेशा चर्चा में ही रहे, जैसे जैसे पुराने होते गए, चापलूसों का हुजूम भी बढ़ता गया। किसी न किसी कारनामें से साहब सुर्खियों में रहते। साहब चिकने घड़े थे, जितना पानी डालो, फिसल ही जाता था। उनकी प्रसिध्दि को दाग तो बहुत लगे। पर वे लक्ष्मीभक्ति से काफी कुछ हासिल कर चुके थे। लोगों को इंतजार होने लगा कि आखिर कब इनके रूआब का सूरज अस्त होगा। लेकिन मैं एक और बात सोच रहा हूं कि देश भर में ऐसे कितने साहब होंगे जो अपनी ऐसी कलाओं से आम जनता का हक चूस रहे हैं। इस खौफ से परे कि अति का अंत कभी न कभी होना है। अपनी कला दिखाकर हासिल किए गए ऐशो आराम, रूतबा, रूआब स्थाई नहीं होते। कुछ चीजें बूमरेंग की तरह होती हैं, घूम फिरकर वापस उसी के पास लौट आती हैं, जो इन्हें दूसरों पर फेंकता है। यह विज्ञान है। इसलिए कला दिखाने वालों, सावधान हो जाओ कि अब देश का विज्ञान भी तरक्की पर है। जिस दिन विज्ञान मूड में आ गया सारी कलाएं धरी रह जाएंगी।

यह तो पढ़ी-सुनी और टीवी पर देखी हुई कहानियां है कि कभी सतयुग, द्वापर में ब्रह्मास्त्र नामक एक महान हथियार हुआ करता था, जो एक बार कमान से निकल जाए, तो खाली नहीं जाता था। असुरों के आतंक से दुखी देवगण त्रिदेवों की शरण में पहुंच जाते थे, उसके बाद यथासंभव अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करके देवताओं को मुक्ति दिलाई जाती थी। कलयुग में काफी कुछ बदला हुआ है। इन्द्रदेव की सभा में नर्तकियों का मनमोहक नृत्य देखने को मिलता था, कलयुग में बालीवुड ने इसका तोड़ निकाल लिया आईटम सांग के रूप में, भला हो फिल्मकारों का जो बिना किसी वजह के, अपनी फिल्मों में लोगों को ऐसी चीजों के दर्शन कराते हैं, जो आम लोगों को यथार्थ में उपलब्ध होना संभव नहीं। बात ब्रह्मास्त्र की हो रही थी, तो अचानक ही मुझे याद आया कि आजकल एक अस्त्र का चलन तेजी से बढ़ा हुआ है। देवताओं के युग में ब्रह्मास्त्र अभेद होता था, मानवयुग में चप्पल नाम का अस्त्र काफी प्रसिध्दि हासिल कर रहा है। माना कि इसे पैरों पहना जाता है, लेकिन जब यह किसी के सिर पर पड़ता है तो उसे दिन में तारे दिख जाते हैं। कलयुग में ब्रह्मास्त्र या अन्य सिध्द अस्त्र तो रहे नहीं, तो सबसे सुविधाजनक लगने वाला यह अस्त्र प्रयोग में लाया जा रहा है। कहावत है कि जूती, चप्पल चाहे चांदी की हो या सोने की, रहेगी तो पांवों में ही। लेकिन जब यह किसी पर पड़ती है या फेंकी जाती है तो अखबारों के प्रथम पृष्ठ की सुर्खियां बनती हैं और इसका प्रयोग करने वाले को रातों रात प्रसिध्दि मिल जाती है। मुझे तो लगता है कि देवताओं को इस बात से मानवों से ईर्ष्या भी हो सकती है कि उन युगों में अखबार क्यों नहीं छपते थे, जिससे कि ब्रह्मास्त्र की महानता का बखान स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो पाता। जिस जिस पर चप्पल-जूते चले, उन्हें तो लोग पहले से जानते थे, लेकिन जिसने इसका प्रयोग किया, उसे पूरे देश के लोग एक ही दिन में जानने लग गए। वैसे भी संसद, विधानसभाओं में चप्पलें चलने का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। अब देखिए न, कामनवेल्थ गेम्स पर भ्रष्टाचार की कालिख पोतने वाले बेचारे कलमाड़ी पर एक गबरू जवान, जोश खरोश से परिपूर्ण युवा ने चप्पल फेंक दी, इसके पहले चिदम्बरम्, आडवाणी आदि आदि पर भी इसी कैटेगिरी के अस्त्र का प्रयोग किया जा चुका है। एक भाई जरनैल सिंह भी हैं, जिन्होंने चप्पल का मान बढ़ाया। चप्पल का महत्व दिनों-दिन बढ़ रहा है, कारण यह है कि ब्रह्मास्त्र को हासिल करने के लिए कठिन तप करने पड़ते थे, चप्पल तो हर गांव शहर की दुकानों में उपलब्ध है, इसे पहनना लोगों की आदत में शुमार हो चुका है, इसे पहनकर घूमने-फिरने पर भी कोई पाबंदी नहीं है और जब जैसा मौका लगे उपयोग भी कर सकते हैं। इसे सिर्फ धार्मिक स्थलों के भीतरी भाग में पहनकर जाने पर पाबंदी है, लेकिन यह भी सत्य है कि अपने देवी-देवताओं को मनाने मंदिर पहंचे अधिकतर भक्तों का ध्यान पूजा पाठ में कम, अपनी चप्पल पर ही ज्यादा रहता है, कि कहीं इसे कोई चोरी करके न ले जाए। यह बात मैंने किसी बुजुर्ग से सुनी है कि अगर मंदिर से चप्पल चोरी हो जाए तो कई कष्ट दूर हो जाते हैं, चोरी करने वाला हमारे कष्ट चप्पल के साथ खुद पर ले लेता है। मैं जब भी किसी धार्मिक स्थल जाता हूं तो सोचता हूं कि काश कोई मेरी चप्पल चुरा ले, ताकि शनिदेव द्वारा दिए जाने वाले कष्ट भी मुझसे दूर हो जाएं। लेकिन मेरी यह मुराद अब तक पूरी नहीं हुई, मेरे आल-औलादों, श्रीमतियों सॉरी सिर्फ एकमात्र श्रीमति जी की चप्पल कई बार मंदिर के बाहर से चोरी हो चुकी है, पर मेरी इस मन्नत को भगवान ने अब तक सुना नहीं। बहरहाल ब्रम्हा जी मुझे माफ कर देना, इसलिए कि आपके सिध्द ब्रह्मास्त्र से कलयुग की नामाकूल चप्पल की तुलना करने की गुस्ताखी की है, लेकिन मुझे तो यही लगता है कि किसी की अति से दुखी लोगों के लिए कलयुग में चप्पल से अनूठा कोई अस्त्र नहीं हो सकता। लोग भी अब इंतजार में हैं कि अगली चप्पल किस महा प्रसिध्द हस्ती पर फेंकी जाएगी ?

बकरा यानि बलि का बकरा होना सिर्फ अकेले उनका भाग्य ही नहीं रहा है। बकरे जैसा भाग्य तो मानव के हिस्से में भी रहा है, तभी तो शादी के पहले दूल्हे के दोस्त-यार उसकी टांग खींचने से नहीं चूकते, ’’अब तो बलि का बकरा बनने जा रहा मेरा मुन्नू। बेटा, इसके बाद तो किसी काम का नहीं रहेगा’’।
ऐसा लगता है मानो घर में बहू नहीं कोई कसाई आ रही हो, जो आते साथ ही अपने नैनों की तेज धार से दूल्हे की बलि चढ़ा देगी। सड़क पर बकरों के झुंड को बिलबिलाते देखकर तरस आने लगता है इन्हें देखकर कि आखिर इनके सिर तो एक दिन कटने ही हैं। दुनिया, देश, प्रदेश, समाज में चारों तरफ मुझे बेचारे बकरे ही बकरे दिखते हैं। रोज कटने को तैयार, जैसे ही कोई खरीदार इन्हें बाजार से खरीदता है, बकरे की मौत का काउंटडाउन शुरू हो जाता है। पर मैं खुद को भी इन बकरों से परे नहीं समझता हूं, क्योंकि सात फेरे मैंने ले ही लिए, तो खुद को इस कौम से अलग रखना मेरे बस की बात नहीं। घर से लेकर देश दुनिया में फैले भ्रष्टाचारी कसाई की तरह वैसे भी रोज जनता को बकरा समझ कर उनके हितों की, अधिकारों की, हक की बलि चढ़ा ही रहे हैं।
इसी तरह मेरी इकलौती अर्धागिंनी (अर्धांगिनी को इकलौती कहोगे, तो सुखी रहोगे) और तीन सुपात्र बच्चे रोजाना मेरी जेब की बलि चढ़ाने में भिड़े रहते हैं, जेब न हुई कोई बकरी-बकरा हो गई। पिछले कई दिनों ये सभी मेरी जेब में आने वाली एक माह की तनख्वाह की बलि चढ़ाने के लिए अपनी आस्तीनें ताने बैठे थे कि ड्रीम पाइंट होटल लेकर चलो। रोज रोज की किचकिच से तंग आकर मैंने सोच लिया कि इससे छुटकारा पाने के लिए यह बलि दे दी जाए। लिहाजा उस शाम सभी को लेकर मैं पहुंच गया होटल। बेयरे ने थोड़ी देर तक दूर से ही मुझे घूर निहारकर देखा, फिर आया ’’ हां साब, आर्डर बोलिए। मैंने कहा ‘‘मेनू कार्ड तो दिखाओ। कार्ड देकर वह चला गया। कुछ देर तक मैं मेनू की लिस्ट देखता रहा। कुछ समझ में आ रहा था और कुछ समझने की मैं कोशिश कर रहा था, लेकिन एक व्यंजन मेरी समझ से बिलकुल परे था। मेनू कार्ड में एक जगह लिखा हुआ था ‘‘शाकाहारी बकरा’’। मैं चौंका, ये कौन सा नया व्यंजन पैदा हो गया। इतने में बेयरा फिर आ गया मैंने उसे बच्चों की पसंद का आर्डर देकर चलता किया। मैं ठहरा शाकाहारी जीव, नानवेज में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन बकरे का व्यंजन वह भी शाकाहारी, मुझे बार बार सोचने पर मजबूर कर रहा था। आखिर मैंने काउंटर पर मौजूद मैनेजर को बुला कर पूछ ही लिया। उसने कहा ‘‘अरे साब, बकरा तो शाकाहारी होता है। मैंने कहा ’’ वो तो सभी बकरे शाकाहारी होते हैं, इसमें नया क्या है। मैनेजर बोला ’’क्या है कि आजकल डिशेज का नया नया नाम रखने का फैशन है, इसलिए इसका नाम रख दिया है। मैंने माथा धर लिया, अरे भाई, शाकाहारी होना तो बेचारे बकरे की किस्मत में होता ही है, पर उसे चट करने वाले तो मांसाहारी हुए न। मैनेजर ने नाक भौं सिकोड़ते हुए वहां से खिसकने में ही भलाई समझी। फिलहाल मैंने और बच्चों ने शाकाहारी व्यंजनों का लुत्फ उठाया, अपनी तनख्वाह की बलि चढ़ाकर लौटते हुए मैं सोच रहा था कि देश का बहुत बड़ा तबका भी होटल के उसी शाकाहारी बकरे की तरह निरीह है, जिनके हक हिसाब को व्यंजन की तरह मजे ले लेकर भ्रष्ट, बेईमान लोग खाते ही नहीं, बल्कि निगल जाते हैं। लेकिन बकरा तो बेचारा ही ठहरा, ऐसे कसाईयों से निपटने के लिए उसे उपरवाले को अपनी किस्मत बदलवाने का आवेदन देना पड़ेगा। आवेदन पर कोई सुनवाई हुई तो बल्ले बल्ले, वरना उसका सिर तो कटने के लिए तैयार बैठा है।

देश नशे के आलम में मदमस्त है, कुछ दिनों पहले किक्रेट का नशा लोगों के सिर चढ़कर बलबला रहा था, अब अण्णा का नशा चढ़ने लगा है बंधुओं को। सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा, सुनो हीरालाल रे, ये नशा भी अजब चीज है, जिसे चढ़ जाए तो उतारा लिए बिना उतरता ही नहीं। शराबी में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया और किशोर कुमार का गाया गीत कितना सटीक है इसका अंदाजा है आपको ? अगर नहीं है तो एक बार जरूर सुनिए ’‘नशा शराब में होता तो नाचती बोतल, नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ जरा‘‘। जिस तरफ देखो नशा ही नशा है। नशे के प्रकार अलग हो सकते हैं, मायने अलग हो सकते हैं, तरीके जुदा हो सकते हैं, पर नशे से कोई बचा नहीं है।
मेरा पड़ोसी लल्लू प्रसाद भी नशे में चूर है, मदहोश है। जब से सगाई हुई तो उस पर मोबाईल का नशा छाया हुआ था, डेढ़ घंटे, दो घंटे, तीन तीन घंटे तक मंगेतर से बतियाता रहता था, जाने क्या-क्या बातें करता होगा, सोचते हुए मैंने एक दिन पूछ ही लिया। लल्लू प्रसाद ने अपनी खींसे निपोरते हुए बताया अरे भईया, अभी तो सगाई हुई है, शादी में कुछ महीने तो लगेंगे ही। फिर आजकल किसी का क्या भरोसा, वेलेंटाईन डे तो साल में एकाध दिन ही मनता है, पर उसका नशा पूरे युवाओं में आठों पहर, चौबीसों घंटे, साल भर चढ़ा रहता है, कहीं दूसरे का नशा उस पर चढ़ गया तो मैं तो गया न काम से, इसलिए अपना नशा चढ़ाने की कोशिश करता हूं उस पर।
एक और पड़ोसी जुगनूराम को रोज टल्ली होने का नशा है, शाम को पीना शुरू करता है तो तीन घंटे से पहले उसके पैग खत्म नहीं होते। होली हो, दीवाली या कोई राष्ट्रीय त्योहार, बिन पिए तो उसका दिन शुरू ही नहीं होता। एक दिन मिल गया हूजूरे आला, पास की नाली में गिरे हुए, एक सुअर की पूंछ पकड़कर सहलाते हुए कह रहा था अरे पप्पू की मां, मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम चोटी भी करती हो, ये क्या अभी तक इसमें खिजाब लगा रखा है, पूरा हाथ ही खराब हो गया। मैंने उसे फटकारते हुए कहा ‘ अरे नामाकूल, इतना ही नशा करने का शौक है तो डूब मर। उसने जवाब दिया ‘अरे भाई, कैसे डूब मरूं, नदी में डूबने गया तो वहां सिर्फ रेत ही रेत है, पानी तो करोड़पतियों को बेच दिया है सरकार ने, मोहल्ले के कुएं को पाट दिया है, तालाब में सिर्फ कीचड़ बचा है, जलकर के दाम म्यूनिस्पिल ने बढ़ा दिए हैं और सरकारी हैंडपंप से भी पानी नईं निकल रहा है, अब डूबने के लिए पानी बचा ई नई, तो ठर्रा पीकर दिल बहलाता हूं।
उसकी बातों से मेरा सिर बिना नशा किए ही चकराने लगा था। मैं सोच में पड़ गया कि ये बात तो सही कह रहा है कि दूध और पानी पीने के लिए मिले न मिले, ठर्रा हर गली, कूचे, मजरेटोले में मौजूद है। वैसे भी लोग अपने अपने नशे में खोए हुए हैं, सरकार के कारिंदे भ्रष्टाचार के नशे में मदमस्त हैं, उद्योगपति राजाओं, राडियाओं, कलमाड़ियों को पाकर मदहोश है, जनता के सामने लोटासन करके वोट पाए, अधिकार प्राप्त नेताओं को घोटाला करने का नशा है, मीडिया सनसनी के नशे में सराबोर है तो बालीवुड में आईटम सांग और कम कपड़े पहनने का नशा छाया हुआ है। लेकिन अब देश के पथभ्रष्ट तंत्र का नशा उतरने लगा है। अपने अण्णा बाबू ने देश के भ्रष्टाचारियों को उतारा लेने पर मजबूर कर दिया है। देखना अभी बाकी है कि राजनीतिक सरपरस्ती के नशे में चूर, लोकतंत्र को अपनी जेब में समझने वाले भ्रष्टों की मदहोशी टूट पाएगी ?


देश में इन दिन आलू प्रेम चरम पर है। जिधर भी देखो आलू ही आलू दिखते हैं। चाट पकौड़े की दुकान पर आलू टिकिया, समोसे में आलू, गोलगप्पे में आलू, बटाटा वड़ा में भी आलू। घरवाली की मेहरबानी आजकल आलू पर ही अधिक दिखती है। जब देखो तो सब्जी बनी है आलू मटर, आलू मेथी, आलू गोभी, आलू भिंडी, आलू पालक, आलू दम वगैरह वगैरह की, नाश्ते में भी बनाया तो आलू पराठा, आलू पोहा, आलू भजिया। लिखते लिखते ही मुंह में पानी आने लगा है। होटल हो या घर, लोग आलू के इस कदर दीवाने हैं कि अगर एक दिन आलू का मुंह न देखें तो पेट का हाजमा ही खराब हो जाए। मेरे मौसा ससुर में जब बताया कि उनके घर में दिन भर में 7 किलो आलू की रोजाना खपत हैं, तो मुझे गश आने लगा। मैं सोचने लगा हूं कि देश की अधिकतर जनता, आम आदमी क्यों है ? जबकि आम का रेट तो इस समय काजू बादाम के बराबर होता जा रहा है। क्या इतनी महंगाई में आम किसी आम आदमी के मुंह तक पहुंच सकता है ? बाजार में एक दिन गलती से फल वाले से पूछ बैठा भाई आम के रेट क्या हैं, दुकानदार ने उपर से नीचे तक मुझे देखा। फिर कहा- खरीदोगे कि सिर्फ पूछने आए हो। मैंने कहा-अरे भाई, आम ही तो है, कोई सोना, चांदी थोड़े है कि खरीदने से पहले सोचना पड़ेगा। ‘‘तोतापरी 160 रूपए, बैंगनफली 200 रूपए, दशहरी 240 रूपए, कितने किलो तौल दूं ? अरे भाई, इतने महंगे, मैंने तो सोचा कि 50-60 रूपए किलो होंगे। दुकानदार बोला- 60 रूपए में तो आम का फोटो भी नहीं मिलेगा, टाईम खोटी मत करो।
मैं तो आम की कीमत सुनकर ही चकरा गया, बिना खरीदे बिना ही बाजार से लौटा, तो मेरी राह तक रही इकलौती अर्धांगिनी और मेरे 3 मासूम बच्चे मुझ पर चढ़ दौड़े, आम लेकर आए क्या ? मैंने कहा - अरी भागवान, आम न हुआ बादाम हो गया, कीमत इतनी बढ़ गई है कि आम खरीदने के लिए अब आम आदमी की जेब गवाही नहीं देती। बदले में आलू ले आया हूं। घरवाले भड़क गए - आलू क्यों ?
मैंने बड़े प्रेम से किसी दार्शनिक की भांति उन्हें लहटाते हुए अपना ज्ञान ग्रंथ खोला और कहा - देखो, आम फलों का राजा कहलाता है, देश की अधिकतर आबादी प्रजा कहलाती है, अब राजा किसी गरीब, गुरबे के यहां तो जाने से रहे, वे तो शहर के चुनिंदा रईसों, शान-शौकत वालों के यहां पहुंचने में ही फख्र महसूस करते हैं। प्याज, गोभी, टमाटर भिंडी, मटर चाहे कितने भी महंगे हो जाएं, लेकिन आलू बेचारा हर किसी के लिए सुविधाजनक होता है। टेटकू, मंटोरा, बुधवारा, शुकवारा जिसे देखो, वह मजे से आलू का रसास्वादन कर लेता है, उसके हिस्से में इतने महंगे आम कहां से आएंगे ? देश की जनता भी तो आलू की तरह हो गई है। जैसे आलू हर किसी सब्जी के साथ अपना सामंजस्य बना लेता है, वैसे ही आम आदमी तमाम गिले शिकवों के बावजूद चुनाव में भ्रष्ट राजनेता के साथ घुल-मिलकर उनके चंगू-मंगुओं को जिता देता है। भ्रष्ट तंत्र को चाहे अनचाहे अपना ही लेता है। 2 जी, 3 जी, आदर्श घोटाला, चारा घोटाला जाने और कितने घोटाले करने वालों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है। लिहाजा आलू की तरह वह सब कुछ सहते हुए चुप रहता है। आलू को चाहे तवे पर भूनो, तेल में जलाओ या सीधे ही आग में डाल दो, वह तो सब कुछ सहेगा और कहेगा भी कुछ नहीं। आम को देखो, एक तो दाम इतने चरम पर है जैसे वह सिर्फ खास लोगों के लिए ही रह गया हो। परचून की दुकानों में रखे अचार के डिब्बों में, कोल्ड ड्रिंक की बोतलों में सजे हुए आम का स्टेटस बढ़ चुका है। जबकि आलू तो किसी गरीब, गुरबे की तरह हर किसी के काम आने को तैयार बैठा है। क्या कभी आलू को बोतलों में सजे हुए, डिब्बों में बंद सुरक्षित देखा है ? नहीं न। तो फिर ये किसने देश की जनता को आम जनता का नाम दे दिया, एक जमाना रहा होगा, जब घर घर आम फलते होंगे, आम के बगीचों में लदकते फलों को तोड़ने के लिए बच्चे, खासकर अल्हड़ जवान मचलते होंगे। भाषा के रचयिता ने इसी वजह से हर गरीब, गुरबे, मध्यम वर्गीय को आम लिख दिया होगा, अब तो बोतल-पाउच का जमाना आ गया है। आम के बगीचे तो सिर्फ पुरानी फिल्मों और तस्वीरों में देखने को रह गए हैं। दोनों की तुलना करें तो आदमी आम नहीं आलू हो गया है। मेरे हिसाब से तो अब आम आदमी नहीं, आलू आदमी कहा जाना चाहिए।

पत्रकार होना मतलब हुड़ हुड़ दबंग, दबंग, दबंग। जिसे देखो, वही पत्रकार है, सड़क से गुजरने वाले हर तीसरे-चौथे वाहन में प्रेस लिखा दिखता है। अखबार के हाकर की तो छोड़िए, प्रिटिंग प्रेस वाले, धोबी और दूधवाले भी मानो प्रेसवाले हो गए। दो पहिया वाहन, चार पहिया वाहन और अब तो लोग ट्रक में भी प्रेस लिखाने लगे हैं। जैसे सावन के अंधे को हरियाली ही नजर आती है, उसी तरह पत्रकार बनने के इच्छुक उम्मीदवारों को भी इसमें हरा ही हरा सूझता है। इससे हटकर एक और बात कि किसी परिवार का एक व्यक्ति प्रेस में काम करता है या पत्रकार होता है, लेकिन उसकी पत्रकारिता का उपयोग उसके पूरे खानदान वाले करते हैं। सब के अपने-अपने तर्क हैं प्रेस से जुड़े होने के, आंखों देखा वाक्या, जिसे मैं पिछले आठ बरस से याद रखे हुए हूं। बिलासपुर के नेहरू चौक से रोज सुबह एक टीवीएस चैम्प वाहन गुजरता, वाहन के सामने हिस्से में प्रेस लिखा हुआ, वाहन के दोनों ओर चार डिब्बे दूध से भरे, लटके हुए, वाहन चलाने वाला सिर पर पगड़ी बांधे, धोती पहना हुआ शख्स। ट्रेफिक के हवलदार को देखता हुआ, मुस्कुराता वह शख्स रोज फर्राटे से वहां से गुजरता रहा। एक दिन हवलदार साहब ने उसे रोक ही लिया और पूछा कि कौन से प्रेस में काम करते हो। उसने कहा- मैं तो दूध बेचता हूं। फिर गाड़ी में प्रेस क्यों लिखाया है ? वो क्या है साहब, आप लोग प्रेस लिखे गाड़ी को नहीं न रोकते हो, इसलिए लिखाया है। उसके बाद हवलदार ने दूधवाले की कनपटी पर तीन चार तमाचे रसीद किए और पकड़कर पुलिस के हवाले किया।
आम तौर पर जब लोगों के बीच जाता हूं तो वे कहते हैं अरे भईया प्रेस वाले हो, तुम्हें क्या, एक फोन करोगे तो घर बैठे नोटों की गड्डी पहुंच जाएगी। पुलिस वाले सलाम ठोकते हैं, अफसर ठंडा, लस्सी पिलाते हैं। अच्छे भले, पहुंच वाले, नेता मंत्री तक आवभगत करते हैं, तुम्हें तो प्रधानमंत्री भी नहीं रोक सकता वगैरह वगैरह। पत्रकार न हुए अलादीन के जिन्न हो गए, चिराग घिसा, जिन्न हाजिर, क्या हुक्म है मेरे आका और मिनटों में आपकी ख्वाहिश पूरी।
हालात तो ये हो गए हैं कि अब जिसे कोई काम न मिले, वो हजार रूपए जमा करके किसी दैनिक अखबार का एजेंट बन जाए, पत्रकार तो वह कहलाएगा ही। साप्ताहिक अखबारों ने तो मुफ्त योजना चला रखी है, पत्रकार बनाने की, भले ही उसके लिए यह सब काला अक्षर भैंस बराबर हो। ऐसा लगता है मानो पत्रकारिता न हुई, पड़ोसी के घर की लुगाई और अपनी भौजाई हो गई।
गाड़ी में प्रेस लिखाने की महिमा से मेरा सुपुत्र भी नहीं बच पाया, एक दिन वह अपनी सायकिल पर कुछ कागज चिपका रहा था, मैंने पूछा, ये क्या कर रहा है ? बालक ने कहा-कुछ नहीं, प्रेस लिखा कागज चिपका रहा हूं। मैंने तनिक आवेश में कहा-तुम कब से प्रेस में काम करने लगे हो ? बालक का जवाब- अरे आप प्रेसवाले हो, तो मैं भी प्रेस वाला हो गया, फलां अंकल का बेटा स्कूल में प्रिंसीपल के सामने रौब जमाता है कि मैं प्रेसवाला हूं, पापा से कहकर तुम्हारे खिलाफ छपवा दूंगा।
मैंने अपना माथा धर लिया। मित्र ने यह सब देखते हुए सलाह दी कि व्यर्थ में अपना दिमाग खराब कर रहे हो, आज के दौर में पत्रकारिता करनी है तो नेताओं की चापलूसी करो, अगर नेताजी घर में भी आराम फरमा रहे हों, तो लिखो कि वे क्षेत्र के दौरे पर हैं। क्षेत्र के गुंडा, मवाली और माफिया अगर आतंक भी मचा रहे हों तो लिखो कि शहर में सब शांतिपूर्ण चल रहा है। अफसरों के फोटो खींचकर उन्हें प्रभावित करो, तो कुछ दक्षिणा भी मिलेगी। अपना हिसाब किताब देखो, मजे में रहो।
मेरा खयाल है कि यह प्रजाति भी तीन तरह की हो गई है, एक-जिन्हें लिखना, पढ़ना आता है, दो-जिन्हें लिखना, पढ़ना और चापलूसी करना आता है, तीन-जिन्हें हिन्दी का ककहरा तक नहीं आता, लेकिन चमका-धमका कर वसूली करने में माहिर हैं। खुद ही तय कीजिए, आप किस श्रेणी में खरे उतरते हैं ?

मोबाईल की महिमा अब चहूं ओर फैलने लगी है, पहले मोबाईल कुछ खास लोगों के पास दिखता था, अब अंबानी जी के करलो दुनिया मुट्ठी में, के दावे को पूरा करते हुए चायवाले, रिक्शेवाले, ठेला-ठप्पर वाले के हाथों में भी पहुंच चुका है। इसके अलावा हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे को बुलंद करते हुए चायना ने सस्ते मोबाईल की सुविधा भी हमें उपलब्ध करा दी है। देवयुग की कल्पना कलयुग में साकार हो रही है, संसाधन जरूर बदले हैं पर काम वही है, जैसा कि पुरानी धार्मिक फिल्मों में देखने को मिलता है। देवयुग के लोग मानसिक तरंगों के संप्रेषण से एक दूसरे से संवाद कर लेते थे। इस युग में मोबाईल नामक अजूबे ने यह काम कर दिखाया है। महाभारत के युध्द का वर्णन करते हुए जिस तरह संजय, महाराज धृतराष्ट्र को आंखों देखा हाल सुनाते हैं (जिसे आजकल लाईव शो कहा जाता है) कुछ उसी तरह की तरक्की हमारे देश में भी हो चुकी है।
एक सज्जन ऐसे ही सड़क के किनारे खड़े अपने साथी से बतिया रहे थे, हां भाई सुनाओ क्या हालचाल है। हां हां, अरे नई यार, वो क्या है कि मैं अभी बेबीलॉन हॉटल में हूं। बस ऐसे ही, मन हुआ तो सोचा कि यहां का भी मजा ले लूं, बाद में मिलता हूं। उनकी बातों से मैं चौंका, ये क्या भाई आप तो यहां घड़ी चौक पर हो ? उसने जवाब दिया, अरे छोड़ न भाई, ये सब फंडा जरूरी है। अपने बाप का क्या जाता है ऐसा बोलने में। मोबाईल से किसी को पता थोड़े चलेगा कि अपुन किधर है।
लोकल ट्रेन से शाम को घर लौटते वक्त भी ऐसा ही वाक्या हुआ। एक युवक अपने किसी भाई-बंधु से बतिया रहा था, हैलो, हैलो, हां भाई मैं तो मुंबई जा रहा हूं, प्लेन में हूं, क्या करूं जरूरी काम आ गया था। एकाध हफ्ता लग जाएगा, फिर फोन करूंगा, टावर नहीं आ रहा हैलो, हैलो, है....। मैंने उसकी बातों को सुनने के बाद पूछा - भाई आप तो ट्रेन में हो, फिर अपने साथी को प्लेन में होने की बात क्यों कह रहे थे। युवक पहले तो कसमसाया, फिर तुरंत खुद को संभाल लिया - क्या है भाई साहब, यूनिटी में रौब जमाना पड़ता है। अगर कह देता कि लोकल ट्रेन में हूं तो मेरे स्टेटस का क्या होता। इसलिए करना पड़ता है।
एक जानकार मित्र से अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उसके घर पहुंचा, तो वह भी मोबाईल से कान लगाए हुए कुछ भुनभुना रहा था। मुझे देखकर वह थोड़ा और दूर जाकर कोने में बतियाने लगा। तीन चार मिनट बाद बातचीत खत्म कर वह मेरी तरफ आते हुए बोला, और यार, सुना क्या हाल चाल है, वो थोड़ा सीएम साहब का वर्जन लेने जाना था, बॉस का फोन था, उसी से बात कर रहा था, तू बता क्या बात है।
मैंने कहा - भाई साहब, जिसे देखो वह मोबाईल कान से लगाए भुनभुनाता हुआ मिलता है। फिर सबसे बड़ी बात ये है कि लोग इस पर झूठ बोलने से भी नहीं चूकते। रहेंगे सड़क पर और बताते हैं प्लेन में हैं। ये सब क्या है यार मेरा तो सिर चकराने लगता है।
मित्र ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा- तू भी न यार, बिना मतलब की बातों और लोगों के पीछे पड़ जाता है। भाई जब कलयुग में ये सुविधा हासिल हो गई है कि तुम आराम से बिना किसी पचड़े के झूठ बोल सको, तो इसमें हर्ज क्या है। मोबाईल का सही उपयोग करना तुम्हें आता नहीं।
इसी बीच उसने अपनी अर्धांगिनी को मोबाईल पर ही आर्डर देकर चाय, बिस्किट व पकौड़े मंगा लिए थे।
अपने ज्ञान को मुझे परोसते हुए मित्र कह रहा था - देख भई, कम्यूटरीकृत और मोबिया फोबिया से आधुनिक होते युग को तुझे स्वीकारना पड़ेगा। ये तो वरदान है, तू जब चाहे अपने बॉस से झूठ बोल सकता है, बीवी के बेलन खाने से बच सकता है, कर्जदारों के तगादे से भी राहत पा सकता है, एकाध एक्स्ट्रा घर बसा सकता है, दो चार को अपने पीछे घुमा सकता है, और तो और, अपना स्टेटस भी बढ़ा सकता है।
तभी उसके मोबाईल की घंटी बजी, फोन उठाकर बातचीत करते हुए मित्र ने कहा, ओ हो, सर, दरअसल पेट में बहुत मरोड़ उठ रही है, डाक्टर को दिखाने जा रहा हूं, उसके बाद आफिस आ पाउंगा, माफ कीजिए सर, ओ आउ, आह.....। फिर उसने मोबाईल आफ कर दिया।
मैंने कहा- अरे यार, अभी तो तू मजे से पकौड़ी खा रहा है, चाय की चुस्की ले रहा है। फिर ये सब क्या है ?
मित्र ने तनिक नाराजगी जताते हुए कहा - अरे यार, तू बिलकुल सुधरेगा नहीं, ये सब किए बिना गुजारा होना संभव नहीं।
मैंने अपनी चाय खत्म करते हुए मित्र से विदा ली और बस में बैठ गया घर लौटने के लिए। बस की सामने वाली सीट पर बैठी युवती कान से मोबाईल चिपकाए धीरे धीरे बातें कर रही थी। दो मोबाईल हाथ में, एक कान पर था। आधे घंटे की यात्रा के दौरान उसके तीनों मोबाईल पर तकरीबन दस बार फोन आए। मैं हैरान था कि आखिर यह जमाने को क्या हो गया है। मोबाईल फोबिया के गिरफ्त में आकर हम अपनी संस्कृति, व्यवहार और आचार-संहिता को भी भूलते जा रहे हैं। इसके साथ ही प्रकृति से खिलवाड़ करने से नहीं चूक रहे हैं। मोबाईल तरंगों के चक्कर में आसपास घूमते, कलरव करते पक्षी हमसे दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि अब तो मोबाईल की रिंगटोन भी कोयल की तरह कूकती है तो हमें उसकी क्या जरूरत ? जय हो मोबाईल देवता की, मोबिया-फोबिया ने जब धीरे धीरे देशभर में अपना महानता का प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है तो मैं उसकी जद में आने से कैसे बच सकता हूं ?

जादू, जिसका नाम सुनते ही लगता है कि कोई चमत्कार होने वाला है, हो गया है, फिर कोई मदारी आ गया खेल तमाशा करने। वैसे भी देश में रोजाना कम खेल-तमाशे नहीं हो रहे हैं, अख्खी जनता यानि भले मानुष रोजाना नए नए घपले घोटालों के खेल, तमाशे और खुलासे से चमत्कृत हो रहे हैं, यह क्या किसी जादू से कम है ?
सुबह-सुबह जब दफ्तर के लिए निकला तो रास्ते में बहुत से लोग एक घेरा बनाकर खड़े हुए दिखे। मैंने सोचा कि दफ्तर के बाकी बंधु लोग जब क्रिकेटेरिया के बुखार में तपे हुए रोजाना टाईमपास कर रहे हैं, तो मैं क्यों पीछे रहूं, वैसे भी हम लोगों को एक दूसरे की नकल करने की आदत जो ठहरी। लिहाजा मैं भी वहां पहुंच गया। गोल घेरे के अंदर एक मदारी हाथ में डमरू लिए खड़खड़ाता हुआ बंदर को नचा रहा था और कह रहा था, बच्चा लोग, भाई लोग, माई लोग और ताई लोग, सब अपना हाथ खुला रखने का, काहे कि देश में अख्खा भ्रष्टाचार मतलब चमत्कार बढ़ गिया है, सबकुछ खुल्लमखुल्ला होने का। लोग गईया माता का, भैंस भाभी का पूरा का पूरा चारा निगल जाता हे, देश का गरीब-गुरबा जनता मानुष लोगों का करोड़ो रूपया निगल जाता हे, उसका बावजूद खुल्लमखुल्ला छाती ठोंक के घूमता हे, ये कोई चमत्कार से कम हे क्या। अबी बाबा लोग नया-नया आसन सिखाता हे, 120 किलो फूल टू फटाक वजन, भारी भरकम तोंद लेके जाता हे, उसके बाद फूं फा करता हे, सिर के बल उलटा पुलटा करता हे, बंदर के माफिक उछलता हे, फिर कुछ महीना में फिटफाट हो जाता हे। ऐसा चमत्कार दिखाने वाला बाबा अबी एक नया आसन खोजा है भाई लोग, उसका नाम है, उसका नाम है, उसका..........
भीड़ में खड़ा एक युवक झल्लाया, अरे, कुछ आगे भी तो बोल।
मदारी ने कहा - उसका नाम हे वोटासन, जिसके सामने पूरा जनता लोटासन करता हे, बच्चा लोग ताली बजाओ, बुजुर्ग बाबा लोग अपनी जेब में रखा रूमाल निकालो, माथे का पसीना पोंछ डालो ओर गबरू जवान इसको ठीक से समझ लो, नौकरी नईं मिले तो आड़ा बखत में वोटासन का मंतर काम आएगा।
मदारी ने आगे कहा - अख्खा भाई लोग को ये तो मालूम होगा कि वोटासन का मंतर जानने वाला मंतरी, संतरी, नेता लोग पांच साल में एकीच बार अख्खा जनता के सामने लोटासन करता हे। बाद में पांच साल तक सबको हमरा ये चिंपू बंदर के जइसा नचाता हे, चल रे चिंपू जरा नाच के बता।
मदारी फिर बोला - ऐसा ही वोटासन सिखाने के वास्ते बाबाजी अख्खा इंडिया घूम घाम रहा हे। जहां भी जाता हे, उछलकूद करता हे, फूं फां करके पेट को फुलाता पिचकाता हे, फिर अख्खा मानुष जन को वोटासन का पट्टी पढ़ाता हे। वोटासन का बहूत बड़ा फायदा ये है कि इसको सीखने के बाद किसी से डरने का जरूरत नईं। एक बार नेता, मंतरी, संतरी बन गिया, तो समझ ले पूरा जिनगी भर ऐश करेगा। आने वाला चुनाव में ऐसा ईच बाबाजी का चेला चपाटी लोग वोटासन के लिए लोटासन करने अख्खा लोग के पास जाएगा। चलो अब जल्दी से अपना जेब में हाथ डालो, नोट पानी निकालो और तमाशा खतम करो। रोज रोज का तमाशा देखके इधर अपुन का बंदर भी थक गिया हे, इसको थोड़ा सा आराम करने को मांगता।
एक घंटे टाईमपास के बाद वहां से दफ्तर जाते वक्त मैं यही सोच रहा था कि देश के हालात और मदारी के खेल तमाशे में कोई खास अंतर नहीं रहा। मदारी की तरह नेता, मंत्री अपने अधिकारों और सुविधाओं का डमरू खड़खड़ाते हुए आम जनता को बंदर समझकर नचाते हैं, उसके नाम पर बटोरे हुए पैसे से तमाम ऐशो आराम हासिल करते हैं, राज करते हैं। वोटासन के जादू का मतलब अब समझ आने लगा था। आखिर वोटासन किसी भारी भरकम चमत्कार से कम है क्या ? जनता पांच साल तक जिन्हें पानी पी पीकर कोसती है, चुनाव आते ही सब कुछ भूलकर फिर से वोटासन के फेरे में पड़ जाती है और जनता, मदारी के बंदर की तरह आजीवन, सिर पर दोनों हाथ रखकर नाचती रहती है। जय हो वोटासन बाबा, तेरी महिमा अपरम्पार है।

सूनी सड़क पर सुबह-सुबह एक काफिला सा चला रहा था, आगे-आगे कुछ लोगअर्थी लिए हुए तेज कदमों से चल रहे थे। राम नाम सत्य है के नारे बुलंद हो रहे थे।शहर में ये कौन भला मानुष स्वर्गधाम की यात्रा को निकल गया, पूछने पर कुछ पतानहीं चला। मैने एक परिचित को रोका, लेकिन वह भी रूका नहीं। मैं हैरान हो गया, हरचीज में खबर ढूंढने की आदत जो है, तो मैने अपने शहर के ही एक खबरीलाल कोमोबाईल से काल करके पूछा। उसने कहा घर पर हूं, यहीं जाओ फिर आराम सेबताउंगा। मेरी दिलचस्पी और भी बढ़ती जा रही थी। आखिर शहर के भले मानुषों कोहो क्या गया है जो एकबारगी मुझे बताने को तैयार नहीं कि धल्ले आवे नानका, सद्देउठी जाए कार्यक्रम आखिर किसका हो गया था। फिर भी जिज्ञासावश मैं खबरीलाल केघर पहुंच गया। बदन पर लुंगी, बनियान ताने हुए खबरीलाल ने मुझे बिठाया औरअपनी इकलौती पत्नी को चाय-पानी भेजने का आर्डर दे दिया। मैंने कहा, अरे यार, कुछ बताओ भी तो सही, तुमइतनी देर लगा रहे हो और मैं चिंता में पड़ा हुआ हूं कि कौन बंदा यह जगमगाती, लहलहाती, इठलाती दुनिया छोड़गया। खबरीलाल ने कहा थोड़ा सब्र कर भाई, जल्दी किस बात की है।

फिर उसने गला खंखारकर अपना राग खबरिया शुरू किया, क्या है मित्र, दरअसल देश में इन दिनों महंगाई,भ्रष्टाचार, घोटाला, हत्याएं, लूट अब घर के मुर्गे की तरह हो गए हैं। ऐसा मुर्गा, जिसकी दो-चार नहीं, हजार टांगें हैं,कद भी बहुत बड़ा है, सिर पर मन को मोहने वाली कलगी भी लगी है, लेकिन बेचारा पोलियोग्रस्त है, यानि मजबूरहै। अब इस हजार टांग वाले मुर्गे की एक-एक टांग खींच-खांचकर कई घोटालेबाजे, इसकी बलि लेने में लग गए हैं।पहले तो इसे काजू, किसमिस, ब्रेड, बिस्किट, चारा, दाना सबकुछ खिलाया, अब इसका मांस नोचने की तैयारी है।
मैंने कहा, मुर्गे की किस्मत में कटना तो लिखा ही होता है। अब इसमें बेचारे घोटालेबाजों का क्या दोष।
खबरीलाल ने फिर से अपना ज्ञान बघारते हुए कहा, तुम समझ नहीं रहे हो। अरे भाई, मुर्गे को पालने वाली मालकिन के बारे में तुम्हें पता नहीं है। उसने इस कलगी वाले मजबूर मुर्गे को क्यों पाला ? यह मुर्गा लड़ाकू मुर्गों जैसा नहीं है। यह तो बिलकुल सीधा-सादा है, इसने अब तक घर के बाहर दूर-दूर क्या, आसपास की गंदगी पर फैला भ्रष्टाचार का दाना भी कभी नहीं चुगा। मालकिन कहती है कि बैठ जा, तो बैठ जाता है, फिर कहती है कि खड़े हो जा, तो खड़े हो जाता है। बेचारा जगमगाती दुनिया में हो रहे तरह-तरह के करम-कुकर्म से दूर है। लेकिन क्या करें, मालकिन के पड़ोसियों की नजर इस पर कई दिनों से गड़ गई है। इसलिए बिना कोई अगड़म-बगड़म की परवाह किए इसे निपटाने के लिए प्रपंच रचते रहते हैं। इतना स्वामीभक्त है कि एक बार इसके साथी मुर्गे ने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है, तो पता है इसने क्या कहा। इसने कहा कि मेरा नाम तो सुंदरलाल है, फिर भी मालकिन से पूछ कर बताउंगा, बताओ भला, कोई और होता तो इतना आज्ञाकारी होता क्या ? अब ऐसे मुर्गे को भाई लोग बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
मैंने झल्लाते हुए कहा कि अरे यार, मैं उस अर्थी के बारे में पूछने आया था और तुमने मुर्गा, मालकिन, घोटाला कीकहानी शुरू कर दी।
उसने हाथ उठाकर किसी दार्शनिक की तरह कहा, अरे शांत हो जा भाई, यह सब उसी अर्थी से जुड़ी कहानी का हिस्सा है। असल में गांव, शहर, महानगर के भले लोग, रोज-रोज घोटालों से तंग आ चुके हैं। अब घोटाले हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे, तो भलेमानुषों ने सोचा कि जब घोटाला, भ्रष्टाचार करने वाले इतनी दीदादिलेरी से इतरा रहे हैं, खुलेआम घूम रहे हैं, निडर हैं, बेधड़क हैं, शान से मूंछें ऐंठ रहे हैं, तो हम क्यों स्वाभिमानी, ईमानदार, सदाचारी, देशप्रेमी बने रहें। इसीलिए अपना यह सुघ्घड़ सा चोला उतारकर उसकी अर्थी निकाल दी है और उसे फंूकने के लिए शमशान घाट गए हैं। शाम को श्रध्दांजली सभा भी है, तुम चलोगे ?
मैंने खबरीलाल को दोनों हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर कहा कि धन्य हो श्रीमान, आप और आपका ज्ञान दोनों हीसत्य है।
खबरीलाल ने कहा, याद रखो मित्र कि जीवन का अंतिम सच, राम नाम सत्य ही है। जाने कब, इससीधे-सादे, कलगीवाले, आज्ञाकारी मुर्गे का भी राम नाम सत्य हो जाए ?

देश में करोड़ों बेरोजगार तमाम डिग्रियां लिए नौकरी केलिए मारे-मारे फिर रहे हैं, पर चिपकू भाई को नौकरी मिलगई, जिसके लिए तो डिग्री की जरूरत थी और हीसिफारिश की, ऐसी नौकरी की उसके घरवाले क्या,बाप-दादे भी उम्मीद नहीं रखते थे। शानो-शौकत बढ़ गई,हाथों में चमचमाती सोने-हीरे की अंगूठी, महंगे जूते,सूट-बूट, टाई उस पर खूब फबने लगी थी। इस महोदय कापरिचय तो जरा जान लें, आपके आसपास ही मिल जाएगा,इसे चमचा कहते हैं, चमचा यानि जिसके बिना खाने काएक निवाला भी मुंह के अंदर जाए, जिसके बिना नेतापानी भी पी सके। ऐसी ही नौकरी चिपकू भाई ने जुगाड़कर ली थी। अफसरों पर रौब कि उनका ट्रांसफर करा देंगे,छुटभैयों पर रंग जमाना कि उन्हें फलां मोहल्ले के वार्डपार्षद की टिकट दिला देंगे, बेरोजगारों के तो वे मसीहा बनगए थे, जहां से भी गुजरते नौकरी पाने की चाह में भटक रहे बेरोजगार नब्बे अंश के कोण की मुद्रा बनाकर सलामकरते थे। ऐसी किस्मत तो आज की तारीख में किसी राजे-महाराजे की भी नहीं हो सकती थी।
यह नौकरी आसानी से नहीं मिलती है, इसके लिए भी हुनर होना चाहिए, ठीक वैसा ही, जैसा देश की सबसे बड़ीकार्पोरेट दलाल राडिया में है, हर्षद मेहता में था, चार्ल्स शोभराज, नटवरलाल भैया में था, जो खड़े-खड़े ही,बातों-बातों में किसी को, कुछ भी बेच सकते हैं। ऐसी हिम्मत और दिगाम का खजाना हर किसी के पास तो होतानहीं। इसलिए चिपकू भाई की किस्मत खुल गई थी। इसके पीछे की हकीकत जानने के लिए मेरे अंदर काखबरनवीस कुछ दिनों के लिए जागा, तो पता चला कि वाह भैया, ये तो हर्रा लगे फिटकिरी, रंग चोखा ही चोखा।चिपकू भाई ने कुछ खास नहीं किया बस फार्मूला चमचागिरी को अपना लिया और अब वह लोगों की नजरों में बहुतबड़ा, पहुंचवाला हो गया। हुआ यूं कि किसी नटवरलाल ने चिपकू भाई को एक आईडिया दिया और वे उस पर अमलकरने लग गए। जब भी किसी नेता का जनमदिन होता, चिपकू भाई पहुंच जाते बधाई देने, बातों ही बातों में तारीफोंके इतने पुल बांधते कि नेताजी उसके कायल हो जाते, यह फार्मूला शहर से शुरू हुआ, फिर प्रदेश से गुजरता हुआदेश की राजधानी तक पहुंच गया और चिपकू भाई साहब कस्बे से उठकर राजधानी के एक नेताजी के खासमखासहो गए। नेताजी की पत्नी को भले ही याद हो कि उनका जनमदिन कब है, मगर चिपकू भाई बकायदा, नियततारीख को फूलों का गुलदस्ता लिए सुबह 7 बजे से ही नेताजी के दरवाजे पर पहुंचकर इंतजार करते थे, जब तकनेताजी को बधाई दें, तब तक दरवाजे से हटते नहीं थे। बताइए भला ऐसा कितने लोग कर सकते हैं और अगरनहीं कर सकते तो बेरोजगार तो रहेंगे ही। नेताजी के प्रति चिपकू भाई के समर्पण को हम चाहे कितनी भी गालियांदें, लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि इसके पीछे कितने फायदे हैं ? यूपी वाली मैडम के जूते पोंछने वाले,चरणस्पर्श करने वाले भाई-बंधुओं को इसका कितना फायदा मिलेगा, इसकी कल्पना भी किसी ने की है ? नहीं ,अपने राहुल बाबा के ही जूते उठाकर पीछे-पीछे घूमने वाले चव्हाण जी को भूल गए क्या ? तो मिला जुला नतीजायही है और समझदारी भी कि फार्मूला चमचागिरी हर युग में सुपरहिट है। इसे अपनाईए, खुद भी सुख पाईए, दूसरोंको भी सुख दीजिए। और अंत में एक खास बात, जिसका भले ही आपको विश्वास हो, चिपकू भाई इस फार्मूले सेअब एक लालबत्ती भी पा चुके हैं, साथ में एक सुरक्षागार्ड भी, गन लिए हुए। यह सुनकर जोर का झटका धीरे से तोनहीं लगा आपको ?