आलोचना का परमसुख

Posted 12:18 am by व्‍यंग्‍य-बाण in लेबल: , ,
घर में आज आलू-चना बना था, इकलौती (दूसरी के लिए हिम्मत नहीं है भाई) पत्नी ने लहसून और जीरे से छौंक मार कर जो परोसा, तो आनंद आ गया चटख-चटख चटखारे लेकर खाने में। निम्बूड़ा का खट्टा रस मिल जाए साथ में, तो मजा आ जाए, स्वाद बढ़ जाए आलू-चने का। वैसे भी आजकल आलोचना का दौर कुछ ज्यादा ही चल पड़ा है। अमूमन आलोचना और आलू-चना में मुझे कोई खास अंतर नहीं दिखता, क्योंकि लोग आलू-चना भी चाव से खाते हैं और आलोचना भी बड़े शौक से पढ़ते हैं, देखते हैं, सुनते हैं। दोनों में तड़का जरूरी है, आलोचना में नेताओं की जबानदराजी का तड़का इसका मजा और भी बढ़ा देता है। ऐसे ही मेरे शहर में एक बुध्दजीवी को आलोचना का बड़ा चस्का था और आलू-चना का भी, आलोचना कर मीनमेख निकालना तो कोई मेरे इस बुध्दजीवी बंधु से सीखे, मंत्री से लेकर संतरी तक और नेता से अभिनेता तक आल-ओव्हर किसी के भी बारे में धांसू विश्लेषण मतलब आलोचना का जैसे एकाधिकार था। कुछ लोग जैसे खुद को सुपरसीट बताने के लिए तरह-तरह के नुस्खे आजमाते हैं, वैसे ही बुध्दजीवी महाशय कम गुरू नहीं थे। कोई माने या ना माने, पर आलोचना का उजला पक्ष इसी से साबित हो जाता है कि भले ही सुकरात, तुलसीदास, रहीम, सूरदास, वाल्मिकी जैसे दार्शनिकों, संतों के सुविचारों पर अपने कान न लगाते हों, पर आलोचना की बात हो तो लोगों के मन में एक मधुर सा रस घुलने लगता है, बिलकुल छौंक लगे हुए आलू-चने के स्वाद की तरह।  निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाए, यह तो सबने ही सुना है कि आलोचना करने वाले के लिए तो हमें एक कुटिया बनाकर, उसे गोबरपानी से लीप पोतकर तैयार रखनी चाहिए, ताकि आलोचक को उसमें आराम से रखा जा सके।
मैं खुद भी इसी श्रेणी का हूं, लिहाजा ऐसे ही बंधुओं से पाला पड़ता रहता है। दफ्तर के लिए निकलता हूं तो अपना ही कोई भाई बंधु मिल जाता है, बस या लोकल ट्रेन में। फिर चल पड़ता है आलू-चना आई मीन आलोचना का दौर। महानगर से लेकर गांव के गलियारे तक और हाई-फाई सोसायटी के रॉकी, जॉनी, रेम्बो से लेकर गांव के टेटकू-तिहारू तक कोई न कोई टापिक आ ही जाता है। लेकिन इस बार आलोचना का निशाना बाबाओं पर है। अंधभक्तों, अंधविश्वासियों और आस्था के नाम पर लुटने वालों को कौन बचाए ? देश में बाबाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है। मठ-मंदिरों की संपत्तियों को देखें तो आंखें खुली रह जाती हैं भाई। करोड़ों अरबों में खेलते देश के कई बाबाओं को मेरा शत्-शत् नमन है सरकार। क्या करूं मैं भी उसी तरह किरपा पाने के लिए तरस रहा हूं, जिसके लिए लोग हजारों रूपए देने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं। आखिर मैं भी तो आर. के. लक्ष्मण के कार्टून के आम आदमी से कम थोड़े हूं। माना कि मौसम आम खाने का आ गया है, लेकिन अब तक गुठलियों के दाम मिलने शुरू नहीं हुए हैं, तो मैं सोचता हूं कि गुठलियों के दाम कैसे निकाले जाएं ? क्योंकि बाबाओं की बढ़ती संपत्ति देख कर कईयों के दिल पर छुरी चलने लगती है, मेरे भी। लिहाजा अब मैं सोचने लगा हूं कि कागज-कलम छोड़ बाबा बनने की तैयारी कर लेनी चाहिए। वैसे भी आस्था के नाम पर लूटने और लुटने का कारोबार अन्य कार्पोरेट सेक्टर से तो बड़ा है ही, अरबों में नहीं खेल सका, तो कम से कम करोड़पति तो बन ही जाऊंगा, जय हो मेरे महान देश के बाबाओं, अंधविश्वासियों, लुटने-लूटने वालों और मेरे जैसे आलोचकों की भी। कहावत है थोथा चना बाजे घना, पर इसमें संशोधन करते हुए कहना चाहता हूं, आलू-चना, मतलब आलोचना बाजे घना, क्योंकि इसमें तो स्वाद ही स्वाद है।
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1 comment(s) to... “आलोचना का परमसुख”

1 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

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