घर में आज आलू-चना बना था, इकलौती (दूसरी के लिए हिम्मत नहीं है भाई) पत्नी ने लहसून और जीरे से छौंक मार कर जो परोसा, तो आनंद आ गया चटख-चटख चटखारे लेकर खाने में। निम्बूड़ा का खट्टा रस मिल जाए साथ में, तो मजा आ जाए, स्वाद बढ़ जाए आलू-चने का। वैसे भी आजकल आलोचना का दौर कुछ ज्यादा ही चल पड़ा है। अमूमन आलोचना और आलू-चना में मुझे कोई खास अंतर नहीं दिखता, क्योंकि लोग आलू-चना भी चाव से खाते हैं और आलोचना भी बड़े शौक से पढ़ते हैं, देखते हैं, सुनते हैं। दोनों में तड़का जरूरी है, आलोचना में नेताओं की जबानदराजी का तड़का इसका मजा और भी बढ़ा देता है। ऐसे ही मेरे शहर में एक बुध्दजीवी को आलोचना का बड़ा चस्का था और आलू-चना का भी, आलोचना कर मीनमेख निकालना तो कोई मेरे इस बुध्दजीवी बंधु से सीखे, मंत्री से लेकर संतरी तक और नेता से अभिनेता तक आल-ओव्हर किसी के भी बारे में धांसू विश्लेषण मतलब आलोचना का जैसे एकाधिकार था। कुछ लोग जैसे खुद को सुपरसीट बताने के लिए तरह-तरह के नुस्खे आजमाते हैं, वैसे ही बुध्दजीवी महाशय कम गुरू नहीं थे। कोई माने या ना माने, पर आलोचना का उजला पक्ष इसी से साबित हो जाता है कि भले ही सुकरात, तुलसीदास, रहीम, सूरदास, वाल्मिकी जैसे दार्शनिकों, संतों के सुविचारों पर अपने कान न लगाते हों, पर आलोचना की बात हो तो लोगों के मन में एक मधुर सा रस घुलने लगता है, बिलकुल छौंक लगे हुए आलू-चने के स्वाद की तरह।  निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाए, यह तो सबने ही सुना है कि आलोचना करने वाले के लिए तो हमें एक कुटिया बनाकर, उसे गोबरपानी से लीप पोतकर तैयार रखनी चाहिए, ताकि आलोचक को उसमें आराम से रखा जा सके।
मैं खुद भी इसी श्रेणी का हूं, लिहाजा ऐसे ही बंधुओं से पाला पड़ता रहता है। दफ्तर के लिए निकलता हूं तो अपना ही कोई भाई बंधु मिल जाता है, बस या लोकल ट्रेन में। फिर चल पड़ता है आलू-चना आई मीन आलोचना का दौर। महानगर से लेकर गांव के गलियारे तक और हाई-फाई सोसायटी के रॉकी, जॉनी, रेम्बो से लेकर गांव के टेटकू-तिहारू तक कोई न कोई टापिक आ ही जाता है। लेकिन इस बार आलोचना का निशाना बाबाओं पर है। अंधभक्तों, अंधविश्वासियों और आस्था के नाम पर लुटने वालों को कौन बचाए ? देश में बाबाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है। मठ-मंदिरों की संपत्तियों को देखें तो आंखें खुली रह जाती हैं भाई। करोड़ों अरबों में खेलते देश के कई बाबाओं को मेरा शत्-शत् नमन है सरकार। क्या करूं मैं भी उसी तरह किरपा पाने के लिए तरस रहा हूं, जिसके लिए लोग हजारों रूपए देने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं। आखिर मैं भी तो आर. के. लक्ष्मण के कार्टून के आम आदमी से कम थोड़े हूं। माना कि मौसम आम खाने का आ गया है, लेकिन अब तक गुठलियों के दाम मिलने शुरू नहीं हुए हैं, तो मैं सोचता हूं कि गुठलियों के दाम कैसे निकाले जाएं ? क्योंकि बाबाओं की बढ़ती संपत्ति देख कर कईयों के दिल पर छुरी चलने लगती है, मेरे भी। लिहाजा अब मैं सोचने लगा हूं कि कागज-कलम छोड़ बाबा बनने की तैयारी कर लेनी चाहिए। वैसे भी आस्था के नाम पर लूटने और लुटने का कारोबार अन्य कार्पोरेट सेक्टर से तो बड़ा है ही, अरबों में नहीं खेल सका, तो कम से कम करोड़पति तो बन ही जाऊंगा, जय हो मेरे महान देश के बाबाओं, अंधविश्वासियों, लुटने-लूटने वालों और मेरे जैसे आलोचकों की भी। कहावत है थोथा चना बाजे घना, पर इसमें संशोधन करते हुए कहना चाहता हूं, आलू-चना, मतलब आलोचना बाजे घना, क्योंकि इसमें तो स्वाद ही स्वाद है।
------------------------



  • टीवी चैनल पर गुलाम अली साहब की पुरकशिश आवाज से सजी गजल चल रही थी गजल ‘ हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है‘। तभी मोबाईल की कानफाड़ू रिंगटोन ने रंग में भंग डालते हुए मजा किरकिरा कर दिया। चैनल के दफ्तर से फोन था, डेस्क वाले बंधु ने जरा तेज आवाज में फटकारते हुए कहा ‘अरे, क्या कर रहे हो, शाम का बुलेटिन शुरू होने वाला है, तुम्हारे शहर में बिजली विभाग के दफ्तर में जमकर हंगामा हो रहा है और तुम अभी तक सो रहे हो। मैं हड़बड़ाया, अपना बैग उठाया और लपक लिया बिजली विभाग के दफ्तर की ओर। वहां पहुंचते तक हंगामा थम चुका था, पर लोगों की भीड़ थी, मैंने कैमरा चालू किया और फुटेज बनाने लगा। किसी तरह दफ्तर के अंदर दाखिल हुआ तो कुछ कुर्सियां टूटी हुई, सामान बिखरा हुआ, मुझे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई, फटाफट शूटिंग करके अफसरों और जनता की बाईट लेकर उसे चैनल में भेजने के लिए भिड़ गया। डेढ़ घंटे बाद चैनल पर न्यूज शुरू हो गई थी, एंकर अपनी तड़कती-फड़कती आवाज में हंगामें का गुणगान शुरू कर चुका था ‘हम आपको दिखा रहे हैं ब्रेकिंग न्यूज, किस दफ्तर में हुई जमकर तोड़फोड़, किस अधिकारी को पीटा जनता ने, आखिर क्यूं हुआ हंगामा वगैरह, वगैरह..। फिर वही तामझाम के साथ खबर परोसी गई दर्शकों को। 
  • हाय रे हंगामा, सोचते सोचते सिर तेजी से घूमने लगा, कितना हंगामा होता है रोज देश में, बिना हंगामें के शायद राजनीति और मीडिया के पेट का पानी नहीं पचता होगा दिन भर में। वैसे भी इन दिनों देश में बवाल पर बवाल, हंगामा ही हंगामा हो रहा है। जनरल वी. के. सिंह की उम्र का हंगामा थमा नहीं कि अरविंद केजरीवाल ने अपने मुखारबिंद से मंत्री वीरभद्र सिंह की भद्रता को ललकार दिया, फिर हंगामा, मामला सलटा नहीं कि इंडियन एक्सप्रेस की सनसनीखेज रिपोर्ट ने फिर बवाल कर दिया, सदन से लेकर सड़क तक फिर हंगामा। वैसे आजकल हंगामें के कुछ पेटेंट परमानेंट हो गए हैं, अन्ना कुछ बोले तो हंगामा, दिग्गी मुंह खोले तो हंगामा, मनमोहना के मौन पर हंगामा, ममता के कड़वे बोल पर हंगामा, रेल बजट आया तो हंगामा, कामनवेल्थ घोटाले का जिन्न फड़फड़ाया तो हंगामा। देश इन दिनों हंगामें की चपेट में है। राजनीति में हर बात पर हंगामा मचाना तो जैसे खाने के बाद हाजमोला के चटखारे लेने जैसा हो गया है। जितने हंगामें हमारे देश में रोजाना होते हैं अगर उनकी फेहरिस्त बनाई जाए तो इस विधा में भी हमारे देश का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में जरूर दर्ज हो जाएगा। पुरानी फिल्म में एक गीत है ‘सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन..। तो हंगामा के गुणगान में मुझे भी ये कहना पड़ रहा है कि ‘हंगामा तेरी आस में, नैन हुए बेचैन, तुम्हरे बिन अब लोगों के, दिन कटते नहीं रैन।


व्यंग्य -
पीएम इन वेटिंग, भाजपा के लौहपुरूष, पूर्व उपप्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, सांसद वगैरह-वगैरह। लोगों ने कई नाम दिए, जुमले बनाए और कुछेक उपलब्धियां आडवाणी जी ने हासिल की। वैसे पीएम इन वेटिंग इन सबसे भारी जुमला है, क्योंकि वेटिंग करने वाले हमेशा इंतजार करते रहते हैं, मौके का फायदा कोई और ले जाता है यानि मेहनत किसी और की फील गुड का मजा किसी और को। यह तो दुनिया का दस्तूर है कि मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाए फकीर। मतलब अटल जी ने बोया, अब आडवाणी काट रहे हैं, आडवाणी बोएंगे, तो मोदी, गड़करी, सुषमा, उमा, शिवराज या रमन जी में से कोई न कोई तो काटेगा ही। अब रथयात्रा को ही लीजिए, आमतौर पर साल भर में एक बार पुरी में जगन्नाथ जी, सुभद्रा और बलदाऊ जी की रथयात्रा निकाली जाती है, दशहरे के दिन मर्यादा पुरूषोत्तम राम, लक्ष्मण, हनुमान का रूप धरकर कलयुगी मानुष रथ पर सवार होकर रावण मारने के लिए निकल पड़ते हैं। इसके अलावा तीसरी रथयात्रा तो हमने आडवाणी जी की सुनी है। कहीं यह रथयात्रा, मनोरथ पूर्ण करने यानि पीएम इन वेटिंग के जुमले को पुख्ता करने के लिए तो नहीं आडवाणी साहब ! वैसे शक करना हम भारतीयों का सबसे अहम् काम है, खासकर पत्रकार होने के बाद शक करना तो जैसे परंपरा हो जाती है। मेरे एक परम करीबी, अजीज मित्र को हर बात में शंका के बादल उमड़ते-घुमड़ते दिखाई देते हैं। मैं उसके गेट वेल सून होने की बार-बार कामना करता हूं, पर बंदा है कि मानता ही नहीं। कभी भाजपा का मुखौटा रहे अटल जी इस वक्त डाउन फाल पर हैं, बल्कि यूं कहिए कि अस्वस्थ हैं, इस वजह से धीरे-धीरे भाजपाईयों के बैनर पोस्टर से उनकी तस्वीरें हटने लगी हैं, यह तो 24 कैरेट सोने से भी खरा सत्य है कि उगते सूरज को हर कोई सलाम करता है। अब देखिए न, जब अटल जी जब सत्तासीन थे, हुकूमत के हुजूरे आला थे तो लोग बैनर-पोस्टर में भले ही अपनी तस्वीर न लगवाएं, पर अटल जी तो विद्यमान रहते ही थे। उनकी कविताओं को बड़े गर्व से, चाव से, रस ले लेकर सुनते और सुनाते थे, हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता हूं मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। परंतु धीरे-धीरे भाजपाईयों की स्मृतियां धूमिल होने लगी हैं, अटल जी तस्वीर उनके मानस से अब धुंधली होने लगी है। जगन्नाथ रथयात्रा या दशहरे के दिन निकलने वाली रथयात्रा महज एकाध दिन में पूरी हो जाती है, पर रामराज में विश्वास रखने वाली पार्टी के हाईकमान आडवाणी साहब की रथयात्रा बड़ी लम्बी-चौड़ी है, 40 दिन, 23 राज्य, 100 जिले, हजारों किलोमीटर सफर और पार्टी के लाखों समर्थक। जितना लम्बा यह सफर है, हमें तो लगता है कि उतना ही बड़ा मनोरथ भी इस रथ पर सवार है। अन्ना हजारे के तांडव से झटके खा-खाकर किसी तरह संभली सोनिया जी की सरकार आई मीन कांग्रेस नीत गठबंधन की सरकार को अब फिर से संभल जाना चाहिए, क्योंकि वक्त पूरी रफ्तार से दौड़ है। वक्त कितनी तेजी से निकल जाता है, यह पता ही नहीं चलता, और जब तक वक्त निकल जाने का अहसास होता है तो सिर्फ हाथ मलना ही बाकी रह जाता है। 5 बरस की केन्द्र सरकार का काउंटडाउन भले ही अभी शुरू न हुआ हो। लेकिन उसके हिस्से में कलमाड़ी, राजा, मारन के बोए गए टू जी, कामनवेल्थ घोटाले के कांटों की धार अब भी कम नहीं हुई है। बबूल के कांटों से लबरेज सत्ता के ताज का वजन लगातार बढ़ रहा है। इस रथयात्रा से आडवाणी का मनोरथ पूरा होगा या मोदी बाजी मार ले जाएंगे या हो सकता है कि बिल्ली के भाग से छींका टूटे ही नहीं, यह सब तो भविष्य की गर्त में है, पर एक बात तो साफ है कि देश के हालात और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी जनता का मन बदलाव की बयार की तरफ मुड़ने लगा है।

व्यंग्य -

यह प्रचलन आजकल हमारे देश में तेजी से बढ़ा है, बाई 1, गेट 1 फ्री यानि एक खरीदो, एक मुफ्त मिलेगा। बढ़िया है, वैसे भी देश में मुफ्तखोरी चरम पर है। लोग बैठे-ठाले मुफ्त का माल हजम करने में पीछे तो रहना नहीं चाहते। मुफ्तखोरी के ऐसे किस्से एक नहीं, हजार मिलेंगे। मेरे एक मित्र की पिछले साल शादी हुई, तो उन्हें पत्नी के साथ मुफ्त में साली भी मिल गई। हुआ यूं कि साली साहिबा उसी शहर में कालेज में पढ़ती थी, जहां उसकी बहन की शादी हुई थी। लिहाजा उसने अपनी बहन के घर डेरा जमा लिया, मित्र महोदय जब भी दफ्तर से घर आते, तो पत्नी सेवा में लगी रहती और वे साली संग बतियाते, वैसे भी मुफ्त का माल हर किसी को अपनी तरफ खींच ही लेता है। ऐसे में होते-होते दोनों इतने घुल मिल गए कि दोनों एक दिन घर छोड़कर भाग गए और पत्नी अपने करम पीटती अकेली रह गई।
हमारे पड़ोस में रहने वाले एक अफसर महोदय भी कुछ ऐसे ही मुफ्तखोरी समिति के सदस्य थे, उन्हें तो हर चीज मुफ्त में चाहिए थी, चाहे वह भाजी-तरकारी हो या सोना-चांदी, कपड़े-लत्ते। किसी भी दुकान पर जाते, तमाम चीजें उलट-पलट कर देखते और झोले भर-भर के चीजें दुकानदार से ले आते, बदले में किसी मातहत को फोन कर कह देते कि फलां दुकानदार का बिल अदा कर दो। बेचारा कर्मचारी, अफसर की मुफ्तखोरी से परेशान।
इसी तरह का हाल-चाल इन दिनों हमारे देश का भी है, मनमोहना से मुग्ध जनता उनके कई मंत्रियों-संतरियों के तमाम घपलों-घोटालों के बावजूद किसी तरह उन्हें झेल ही रही है, क्योंकि गड़बड़झाले के छींटे डायरेक्ट उन पर नहीं पड़े हैं। लेकिन मोंटेक जी महाराज ने तो कमाल कर दिया, गरीबी की नई परिभाषा देकर। 32 रूपए प्रतिदिन यानि एक हजार रूपए प्रतिमाह कमाने वाला कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं हो सकता। जब उन्होंने ऐसा कहा तो देश भर में उनकी किरकिरी करने के लिए लोग पीछे पड़ गए। अरे भाई, लोगों ने यह समझा ही नहीं कि आखिर योजना आयोग का काम ही है योजना बनाना। इतने वर्षों में गरीबी कम नहीं कर सके, तो जनता को अमीर बताने की योजना ही बना डाली। अब इसमें गलत क्या है, आजकल तरह-तरह के मैनेजमेंट कोर्स चल रहे हैं, जिसमें बताया जाता है कि बड़ी सोच का बड़ा जादू, सोचो-बोलो-पाओ, पावर अनलिमिटेड, सफलता के सात मंत्र आदि आदि। हमें तो लगता है कि देश की जनता को मुफ्त मिले मनमोहन के साथ, मुफ्त मिले मोंटेक ने ऐसा ही कोई मैनेजमेंट कोर्स देखकर उसे अपनाने की ठान ली है। दरअसल बड़ी सोच का बड़ा जादू यही है कि बड़े सपने देखो और कुछ समय बाद उसका रिजल्ट पाओ, लेकिन यह तभी संभव है जब नीयत, लगन, इच्छाशक्ति, नजरिया भी साथ हो, सिर्फ सपने देखते रहने से तो शेखचिल्ली भी सपने में अमीर बन गया था। मोंटेक साहब को तो कम से कम ऐसे हसीन सपनों से बचना चाहिए। क्योंकि देश की बहुत बड़ी आबादी आज के एक समय खाकर ही जीती है। क्या मनमोहन-मोंटेक या कोई अन्य मंत्री-संतरी 32 रूपए प्रतिदिन के खर्च पर अपना और अपने परिवार का गुजारा कर सकते हैं ? यदि यह संभव है तो खुश हो जाईऐ कि हम सब अमीर हैं।

व्यंग्य

रंग बदलने की फितरत और उदाहरण भले ही गिरगिट जी के हिस्से में आते हैं, लेकिन मानव जाति में भी कम रंग बदलू लोग नहीं हैं। बल्कि ऐसे लोगों की संख्या ‘मेक प्रोग्रेस लिप्स एंड बाउंस‘ यानि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। स्व. शम्मी कपूर अभिनीत एक फिल्म का गाना भी कुछ इसी तरह है ‘इस रंग बदलती दुनिया में, इंसान की नीयत ठीक नहीं, निकला न करो तुम सज-धज कर ईमान की नीयत ठीक नहीं‘। देश किन परिस्थितियों से गुजर रहा है, यह तो बीते दस-पंद्रह दिनों में ही लंगोट कसकर अन्ना का अनशन दिखाने वाले चैनलों की बदौलत देखने को मिल रहा है। भ्रष्ट लोगों को जड़ से उखाड़ना कितना कठिन है, यह अब अन्ना टीम और उनके समर्थकों को अब पता चल रहा है। सरकार के मंत्री, संतरी किस तरह हर दिन, हर पल रंग बदलते रहे कि इतने बार रंग बदलने के बाद तो गिरगिट जी को भी शर्म आने लगी होगी खुद पर (जी कहना दरअसल हमनें तब से सीखा, जब से दिग्गी राजा ने ओसामा बिन लादेन को जी कहा था), तो साहेबान, कदरदान, मेहरबान, पेश है भ्रष्टाचार में सर से पांव तक डूबे हमारे देश की दास्तान। अन्ना साहब और उनकी टीम ने अनशन शुरू होने से लेकर एक ही रट लगाए रखी कि जनलोकपाल बिल पास होना चाहिए। अन्ना टीम और लाखों आवाम को शायद मालूम हो, फिर भी बताना जरूरी है कि किसी भी बिल को पास कराने के लिए अधिकतर सरकारी दफ्तरों में एक बंधा-बंधाया कमीशन देना पड़ता है। बिना लिए-दिए तो बाबू के हाथ से फाईल आगे सरकती नहीं, अफसर के दस्तखत होते नहीं, भले ही चार के बजाय चालीस दिन और चार महीने बीत जाएं। तो ऐसे हाल में बिना कुछ लिए-दिए भूखे रहकर अनशन करने वाले अन्ना के जनलोकपाल बिल को सरकार कैसे पास होने देगी! आखिर परंपरा भी कोई चीज है भई ! देश से अंग्रेज तो चले गए, पर अपनी कूटनीति का कुछ हिस्सा यहीं छोड़ गए। लिहाजा बचे हुए हिस्से को आजमाने का काम सरकारें करती रहती हैं, अफसर भी करते हैं कि फूट डालो, राज करो, सामने वाला तो अपने आप ही केकड़ा चाल में फंसकर खत्म हो जाएगा। अनशन के दौरान जितनी बार कुछ नेताओं ने अपने रंग बदले हैं, उससे तो लगता है कि गिरगिट जी को किसी कोर्ट में ऐसे लोगों पर मानहानि का मुकदमा दायर कर देना चाहिए, आखिर उसके हक हिस्से का रंग बदलू काम किन्हीं और लोगों ने कैसे हथिया लिया। लेकिन यह गिरगिट जी की महानता ही है कि उन्होंने ऐसे लोगों को अदालती मामले में नहीं घसीटा और उसे इस बात का फक्र भी है कि उसने अपना धर्म नहीं बदला, भले ही देश के आम लोगों का हक चूसकर मुटियाने वाले भ्रष्टाचारी अपना धर्म-ईमान बदलते रहें।

गोलमाल करने वालों का भी जवाब नहीं, बंधन टूटे ना सारी जिंदगी की तर्ज पर सब एक-दूसरे के पीछे एक जगह पर इकट्ठे हो ही जाते हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत जिस किसी शख्स ने भी बनाई होगी, मुझे उससे शिकायत है, दो अलग-अलग खानदानों के लोगों को भाई बनाने की बजाय चोर-चोर चचेरे भाई नहीं बना सकते थे क्या ? जो पुरूष प्रधान देश में नारियों को कलंकित करने के लिए एक और कहावत गढ़ दी।
यह बात कहावत सुनाने के लिए शुरू नहीं की थी मैंने, असल विषय तो गोलमाल टीम का है, जिसने देश के लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लाखों भोले-भाले बैसाखू, मंटोरा, बुधारू की आंखों में धूल झोंककर टू जी गोलमाल को अंजाम दिया। गोलमाल पार्ट 1 यानि कामनवेल्थ के कुकर्मी और गोलमाल पार्ट 2 यानि टू जी स्पेक्ट्रम के हीरो मय हीरोईन इस समय तिहाड़ में हैं। मतलब यह कि राजनीतिक क्षेत्र के गोलमालिए ‘हम साथ-साथ हैं‘ के स्लोगन को पूरी तरह निभा रहे हैं। मारन पर भी मारक मंत्र फंूका जा चुका है, तिहाड़ का दरवाजा उनके लिए खुल चुका है, अब गए कि तब। मेरे ख्याल से गोलमाल टीम के काफी खिलाड़ी तिहाड़ में इकट्ठे हो चुके हैं। इसलिए कप्तान का चुनाव हो ही जाना चाहिए। तभी तो टीम गोलमाल आगे नए-नए कारनामें कर सकेगी। इसके लिए आमिर खान जैसे आईडियाबाज एक्टर की तरह मेरे दिमाग में भी केमिकल लोचा आना शुरू हो गया है। दरअसल फिल्मों से मुझे बहुत लगाव है, बचपन से ही फिल्में बनाने के सपने देखता था, एकाध बार छत्तीसगढ़िया छालीवुड में ट्राई मारी, तो एक आल इन वन अजूबे कलाकार ने मुझे 440 वोल्ट का झटका दे दिया यह कहकर, कि फिल्म का निर्माता, निर्देशक, स्क्रिप्ट राईटर, डांस डायरेक्टर और हीरो मैं ही बनूंगा। मैंने पूछा-तो फिर मैं क्या करूंगा फिल्म में। आल इन वन ने जवाब दिया- अरे भाई फिल्म को देखने के लिए भी तो कोई चाहिए!
उस दिन से मैं कई दिनों तक फिल्म बनाने के सपने भूल गया, लेकिन तिहाड़ में गोलमाल टीम को इकट्ठा देखकर फिर मेरे दिमाग में फितूर उठा है। गोलमाल सीरीज बनाने वाले फिल्म निर्माता महोदय अगर कहीं यह लेख पढ़ सकें, तो कृपया विचार करें कि गोलमाल, गोलमाल-2, गोलमाल-3 के बाद अब इसी सीरीज को आगे बढ़ाते हुए गोलमाल टीम इन तिहाड़ फिल्म बनाना उचित होगा कि नहीं ? मेरे हिसाब से तो टीम के असली हीरो श्री श्री 1008 कल्लू भैया को बना देना चाहिए, क्योंकि कामनवेल्थ में बिना हाथ-पैर चलाए ही वे असली खिलाड़ी होने का गौरव प्राप्त कर चुके हैं। ये अलग बात है कि इनाम के रूप में उन्हें तिहाड़ में ऐश करने की छूट मिली हुई है। तिहाड़ पहुंचे एक जज महोदय प्रत्यक्ष रूप से कल्लू भैया और जेलर साहब को एक साथ नाश्ता पानी करते देख ही चुके हैं और गोलमाल टीम के खिलाड़ियों को वहां जेल होने के बावजूद खुले में घूमने फिरने की छूट मिली हुई है। एक पर एक फ्री का खेल तो पुराना हो गया, अब तो एक पर पांच, दस फ्री का जमाना आ गया है। तिहाड़ में एक कलमाड़ी भेजो, तो राजा, कनि सहित कईयों को खुलेआम घूमने की 100 प्रतिशत छूट। गोलमाल टीम के कोच फिलहाल बाहर हैं, लेकिन जल्द ही उन्हें भी टीम को कोचिंग देने के लिए तिहाड़ भेजा जाएगा। इसका काउंटडाउन शुरू हो चुका है। मैं अब यह सोचने लगा हूं कि कहीं यह गोलमाल टीम तिहाड़ के अंदर में योजना बनाकर किसी ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय गोलमाल पार्टी‘ जैसी अंतर्राष्ट्रीय पार्टी बना लेगी, तो चोर-चोर चचेरे भाई की कहावत जरूर सार्थक हो जाएगी।

महात्मा गांधी जी यानि एकमात्र, इकलौते हमारे भारत देश के सर्वाधिकार सुरक्षित राष्ट्रपिता। सिल्वर स्क्रीन से लेकर राजनीतिक गलियारों में बापू को एक नया आयाम मिला है उनके विचारों और आदर्शों को, जिसे गांधीगिरी का नाम दिया गया है। अब जब कभी किसी नेता की बात या मांगें नहीं मानी जाती तो उसे बापू की याद आ जाती है और वह गांधीगिरी करके सरकार को झुकाने की कोशिश करने लगता है। ये अलग बात है कि अण्णा जी इस युग के वास्तविक गांधीवादी समाजसेवी हैं। पर अधिकतर गांधीगिरी करने वालों के चेहरों के पीछे एक और चेहरा है। गांधीगिरी करते वक्त ऐसे लफ्फाज, मौकापरस्त और स्वार्थी लोगों के चेहरे के हाव-भाव देखते ही बनते हैं, ऐसा लगता है जैसे वे जन्म से ही बापू के समर्पित समर्थक रहे होंगे। राजकुमार हीरानी ने लगे रहो मुन्नाभाई में जो प्रयोग गांधीगिरी के किए, तो गांधीगिरी का शौक कईयों को लग गया, ऐसे में मेरे शहर के एक युवा नेता ने भी गांधीगिरी दिखाते हुए अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए रास्ते से गुजर रहे वाहन चालकों व पैदल चलने वालों को गुलाब भेंट किए, ताकि उनकी मांगें न मानने वाले अफसरों, नेताओं का गेट वेल सून हो जाए। बुजुर्गों तथा परंपरावादियों से मैं यह सुन-सुनकर थक चुका हूं कि देश के लोग अब गांधीजी को भूल गए। कौन कहता है कि गांधी जी भुला दिए गए, ये जरूर हो सकता है कि उनके आदर्श, उनके विचारों का लोग पालन नहीं कर रहे या करना चाहते। लेकिन गांधी जी सर्वव्यापी हैं, जैसे कण-कण में भगवान है, ठीक उसी तरह हर जेब-जेब में बापू हैं। भले ही वे किसी के दिल में मिलें न मिलें पर बापू की तस्वीर हर किसी की जेब में मिल जाएगी हरे, लाल, नीले नोटों पर। बताईये भला, बापू को अगर भुला देते तो उन्हें अपनी जेब में थोड़े रखते !
सत्याग्रह से अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने वाले बापू अब स्वार्थ साधने की चीज हो गए। मामला जमा नही ंतो गांधीगिरी कर लो, सेटिंग हो गई तो ठीक, वरना इसी बहाने कम से कम छवि तो सुधर जाएगी ! गांधीगिरी का नुस्खा बड़े शहरों से होते हुए कस्बों और गांवों तक पहुंच गया है। भारत की आत्मा गांवों में बसती है, कहने वाले बापू को शायद अंदाजा नहीं रहा होगा कि उन भोले-भाले गांववालों के नाम पर जब केन्द्र सरकार से गांधी की तस्वीर लगे लाखों करोड़ों रूपए निकलते हैं तो उसका महज 10 प्रतिशत हिस्सा ही वहां तक पहुंच पाता है यानि 10 प्रतिशत बापू ही गांव वालों तक पहुंच पाते हैं और 90 प्रतिशत बापू की तस्वीर वाले हरे-हरे नोट किधर जाते हैं, किसी अफसर, नेता के भारतीय बैंक एकाउन्ट में या फिर स्विस बैंक की शोभा बनते हैं ? जिस तरह पानी जीवन का अहम् हिस्सा है और पानी बचाने की मुहिम देश भर में चलती रहती है, इसके चलते कहावत भी गढ़ दी गई कि बिन पानी सब सून, पर मेरे विचार में तो गांधी के विचारों को आत्मसात करने की जरूरत है, उसे दिल में, दिमाग में बसाने की जरूरत है। जेब में रखे गांधी तो आज तुम्हारे पास, कल किसी और के पास चले जाएंगे, पर दिल में बसे गांधी को कोई कैसे चुरा सकेगा या छीन सकेगा ? गांधी जी हर तरह से हमारे जीवन में उपयोगी थे और रहेंगे, दिल में बसाया तो जीवन सुधर जाएगा, जेब और तिजोरियों के लायक समझोगे तो भी काम आएंगे। इसलिए नया नारा तो अब बिन गांधी सब सून है।