मांगने का कला-विज्ञान

Posted 11:52 pm by व्‍यंग्‍य-बाण in लेबल: ,
जीवन में मांग का बड़ा महत्व है, वैसे मांग तो हर किसी के सिर में बालों के बीच बनी होती है, कुछ लोगों को छोड़कर। लेकिन मैं उस मांग की बात कर रहा हूं, जिसे अंग्रेजी में डिमांड कहा जाता है। दरअसल जब से हरिओम शरण जी के गाए भजन ‘दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया‘ को सुना है, तब से मुझे भी लगता है कि वाकई में कोई अरब-खरबपति हो या फिर बेघर बंदा, सभी कुछ न कुछ मांग रहे हैं, कोई ईश्वर से, तो कोई इंसान से। यह जरूरी नहीं कि जो मांगा वो मिल जाए, लेकिन मांगना हमारा परम धर्म है। जैसे अन्ना जी सरकार से लोकपाल बिल की मांग पर अड़े हुए हैं और बाबा जी काले धन को वापस लाने के लिए। वर्षों पहले बंटवारा कर चुका बड़ा भाई भारत, छोटे भाई पाकिस्तान से बार-बार अपनी कारस्तानियां रोकने की मांग कर रहा है, ये अलग बात है कि छोटे भाई ने अब तक बड़े भाई की मांग नहीं मानी है। मांगने से मिल जाए तो ठीक, वरना दबंग प्रवृत्ति के लोग छीनने में यकीन रखते हैं। मांगने की संस्कृति कब से शुरू हुई, इसका पता पुराने से पुराने इतिहास में भी नहीं मिलता। क्योंकि सतयुग, द्वापर, तेत्रायुग हो या कलयुग, हर युग में लोग मांगते ही दिखते हैं। भले ही कोई टाटा, बिरला, अंबानी, मित्तल की तरह धनकुबेर हो जाए, लेकिन मांगना नहीं छोड़ेगा, मांगने का स्तर अलग हो सकता है, पर मांगने के लिए हर कोई तैयार है।
कहावत है कि मांगो उसी से, जो दे दे खुशी से, और कहे न किसी से, लेकिन इस कहावत पर अमल करता कोई दिखता नहीं है। लोकपाल बिल के लिए मांग-मांग कर थक चुके समाजसेवी अब भी अड़े हुए हैं। ऐसा लग रहा है कि लोकपाल बिल सरकार के पास बचा एकमात्र वरदान है, जो छिन गया तो फिर भगवान ही भला करे। अरे भाई, सीधी सी बात है कि किसी भी दुकान से सामान खरीदने के बाद उसका बिल मिलना चाहिए, लेकिन अधिकतर लोगों को सामान का बिल नहीं दिया जाता, तो सरकार कैसे लोकपाल बिल जनता को दे सकती है ? यह कोई छोटा-मोटा खिलौना या झुनझुना तो है नहीं, जो जनता को पुचकारने के लिए उसके हाथ में दे दिया। भले ही यह आज जोकपाल बना रहे, पर कल जरूर लोकपाल बन जाएगा। अहम बात ये है कि मांगने की कला का असल फायदा वे लोग उठाते हैं, जिन्हें चम्मचगिरी का खासा अनुभव होता है। मांगने के परमधर्म से मैं खासा परेशान हूं, मेरा एकमात्र सपूत आजकल आईफोन, ब्लेकबेरी मांग रहा है और बिटिया को स्कूटी चाहिए, इकलौती घरवाली के क्या कहने, क्योंकि उसे तो प्यारे हैं सोने-चांदी, हीरे के गहने। मैं तो यह भी सोचने लगा हूं कि रात को मोहल्ले में घूम-घूमकर, सीटी बजाकर लोगों को होशियार करने के लिए चिल्लाने वाले नेपाली पहरेदार को अपना तकिया-कलाम ‘जागते रहो‘ से बदलकर ‘‘मांगते रहो‘‘ कर देना चाहिए। क्योंकि सारी दुनिया मांग ही तो रही है और मैं भी मांगने की संस्कृति से बचा नहीं हूं।



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