पत्रकार होना मतलब हुड़ हुड़ दबंग, दबंग, दबंग। जिसे देखो, वही पत्रकार है, सड़क से गुजरने वाले हर तीसरे-चौथे वाहन में प्रेस लिखा दिखता है। अखबार के हाकर की तो छोड़िए, प्रिटिंग प्रेस वाले, धोबी और दूधवाले भी मानो प्रेसवाले हो गए। दो पहिया वाहन, चार पहिया वाहन और अब तो लोग ट्रक में भी प्रेस लिखाने लगे हैं। जैसे सावन के अंधे को हरियाली ही नजर आती है, उसी तरह पत्रकार बनने के इच्छुक उम्मीदवारों को भी इसमें हरा ही हरा सूझता है। इससे हटकर एक और बात कि किसी परिवार का एक व्यक्ति प्रेस में काम करता है या पत्रकार होता है, लेकिन उसकी पत्रकारिता का उपयोग उसके पूरे खानदान वाले करते हैं। सब के अपने-अपने तर्क हैं प्रेस से जुड़े होने के, आंखों देखा वाक्या, जिसे मैं पिछले आठ बरस से याद रखे हुए हूं। बिलासपुर के नेहरू चौक से रोज सुबह एक टीवीएस चैम्प वाहन गुजरता, वाहन के सामने हिस्से में प्रेस लिखा हुआ, वाहन के दोनों ओर चार डिब्बे दूध से भरे, लटके हुए, वाहन चलाने वाला सिर पर पगड़ी बांधे, धोती पहना हुआ शख्स। ट्रेफिक के हवलदार को देखता हुआ, मुस्कुराता वह शख्स रोज फर्राटे से वहां से गुजरता रहा। एक दिन हवलदार साहब ने उसे रोक ही लिया और पूछा कि कौन से प्रेस में काम करते हो। उसने कहा- मैं तो दूध बेचता हूं। फिर गाड़ी में प्रेस क्यों लिखाया है ? वो क्या है साहब, आप लोग प्रेस लिखे गाड़ी को नहीं न रोकते हो, इसलिए लिखाया है। उसके बाद हवलदार ने दूधवाले की कनपटी पर तीन चार तमाचे रसीद किए और पकड़कर पुलिस के हवाले किया।
आम तौर पर जब लोगों के बीच जाता हूं तो वे कहते हैं अरे भईया प्रेस वाले हो, तुम्हें क्या, एक फोन करोगे तो घर बैठे नोटों की गड्डी पहुंच जाएगी। पुलिस वाले सलाम ठोकते हैं, अफसर ठंडा, लस्सी पिलाते हैं। अच्छे भले, पहुंच वाले, नेता मंत्री तक आवभगत करते हैं, तुम्हें तो प्रधानमंत्री भी नहीं रोक सकता वगैरह वगैरह। पत्रकार न हुए अलादीन के जिन्न हो गए, चिराग घिसा, जिन्न हाजिर, क्या हुक्म है मेरे आका और मिनटों में आपकी ख्वाहिश पूरी।
हालात तो ये हो गए हैं कि अब जिसे कोई काम न मिले, वो हजार रूपए जमा करके किसी दैनिक अखबार का एजेंट बन जाए, पत्रकार तो वह कहलाएगा ही। साप्ताहिक अखबारों ने तो मुफ्त योजना चला रखी है, पत्रकार बनाने की, भले ही उसके लिए यह सब काला अक्षर भैंस बराबर हो। ऐसा लगता है मानो पत्रकारिता न हुई, पड़ोसी के घर की लुगाई और अपनी भौजाई हो गई।
गाड़ी में प्रेस लिखाने की महिमा से मेरा सुपुत्र भी नहीं बच पाया, एक दिन वह अपनी सायकिल पर कुछ कागज चिपका रहा था, मैंने पूछा, ये क्या कर रहा है ? बालक ने कहा-कुछ नहीं, प्रेस लिखा कागज चिपका रहा हूं। मैंने तनिक आवेश में कहा-तुम कब से प्रेस में काम करने लगे हो ? बालक का जवाब- अरे आप प्रेसवाले हो, तो मैं भी प्रेस वाला हो गया, फलां अंकल का बेटा स्कूल में प्रिंसीपल के सामने रौब जमाता है कि मैं प्रेसवाला हूं, पापा से कहकर तुम्हारे खिलाफ छपवा दूंगा।
मैंने अपना माथा धर लिया। मित्र ने यह सब देखते हुए सलाह दी कि व्यर्थ में अपना दिमाग खराब कर रहे हो, आज के दौर में पत्रकारिता करनी है तो नेताओं की चापलूसी करो, अगर नेताजी घर में भी आराम फरमा रहे हों, तो लिखो कि वे क्षेत्र के दौरे पर हैं। क्षेत्र के गुंडा, मवाली और माफिया अगर आतंक भी मचा रहे हों तो लिखो कि शहर में सब शांतिपूर्ण चल रहा है। अफसरों के फोटो खींचकर उन्हें प्रभावित करो, तो कुछ दक्षिणा भी मिलेगी। अपना हिसाब किताब देखो, मजे में रहो।
मेरा खयाल है कि यह प्रजाति भी तीन तरह की हो गई है, एक-जिन्हें लिखना, पढ़ना आता है, दो-जिन्हें लिखना, पढ़ना और चापलूसी करना आता है, तीन-जिन्हें हिन्दी का ककहरा तक नहीं आता, लेकिन चमका-धमका कर वसूली करने में माहिर हैं। खुद ही तय कीजिए, आप किस श्रेणी में खरे उतरते हैं ?
2 comment(s) to... “खबरनवीस या अलादीन का जिन्न”
2 टिप्पणियाँ:
किस ज़माने की बात कर रहे हो रतन जी,
अब तो पत्रकारों की साख माशाअल्लाह इतनी अच्छी हो गई है कि छुपाना पड़ता है कि पत्रकार हैं, वरना किसी कलाकार पत्रकार का सताया जला-भुना कोई भुगतभोगी कपड़े फाड़ कर कहां जुलूस निकाल दे, क्या भरोसा...
जय हिंद...
दिलचस्प व्यंग्य आलेख . अच्छा लगा . आभार .
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