
दूल्हा बिकता है फिल्म में राज बब्बर अपनी मजबूरियों की वजह से बिक जाता है, पर अब तो बिना मजबूरियों के ही लोग अपने सुपुत्रों के लिए तोल मोल के बोल करने को दुकान खोले तैयार बैठे हैं। दहेज में क्या-क्या चाहिए, इसकी बड़ी सी फेहरिस्त बना कर वधु पक्ष को इस तरह सौंप देते हैं जैसे वह किसी फाईव स्टार हाटल का मेनू कार्ड हो। भले ही निजी स्कूल, प्रशिक्षण संस्थान, डाक्टर अपनी सेवाओं की फीस अब तक फिक्स न करें, पर आधुनिकता की बढ़ती चकाचौंध में दूल्हों के रेट लगभग तय हो चुके हैं। लड़का किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी है, रेट 2 लाख रूपए, शिक्षाकर्मी है-तीन लाख, क्लर्क है-चार लाख, अधिकारी है-पांच लाख, इंजीनियर, डाक्टर है- 8 से 10 लाख, उससे भी उंचे पद पर है तो 10 से 25 लाख रूपए तक मूल्यवान है। आखिर मां-बाप ने पैदा किया, उस पर खर्च किया, पढ़ाया लिखाया, खिलाया पिलाया, तो उसका हर्जाना कौन देगा ? मेरे एक मित्र की बहन की मंगनी हुई तो लड़के वालों ने कोई दहेज नहीं मांगा, मुझे आश्चर्य होने लगा, वाह भाई, ये तो कमाल हो गया। इतना अच्छा परिवार तो हमें हजारों क्या लाखों में एक मिलेगा। जब मैंने मित्र को बधाई दी, तो मित्र महोदय का चेहरा उदास हो गया। मैंने कहा, यार, ये उदासी क्यों ? मित्र ने कहा-लड़का इंजीनियर है, आलीशान मकान है, बंगला है गाड़ी है, खाता पीता परिवार है। लेकिन उसके घरवालों ने कह दिया कि जो कुछ भी दोगे वह तुम्हारी बहन का ही होगा। अगर कार नहीं दोगे तो वह अपने पति के साथ मार्केटिंग करने कैसे जाएगी, पचीस-पचास तोले स्वर्ण आभूषण के बिना तो वह कहीं समाज में उठ बैठ नहीं सकेगी, दो-चार लाख उसके हाथ में नकद नहीं रहेंगे तो क्या वह बार बार अपने पति के सामने हाथ फैलाएगी ? बस हमें तो कुछ नहीं चाहिए, ये सब तो तुम्हारी बहन के काम ही आएगा, हमारे पास तो किसी चीज की कमी नहीं है।
दहेज लेने का यह नायाब तरीका मुझे तो पहली बार ही सुनने में आया था, मित्र के सिर पर उसके होने वाले समधियों ने चांदी का जूता मारा था। मैं अपने कमरे में बैठा मित्र के साथ विचार विमर्श कर ही रहा था कि दूसरे कमरे से मेरी अर्धांगिनी की कौए की तरह सुमधुर आवाज आई, अजी सुनते हो, अब ऐसे ही बैठे रहोगे कि कुछ करोगे भी। मैंने पूछा, क्या हुआ भागवान। पत्नी ने फिर अपना कंठ खोला - तुम्हें याद नहीं कल ननद जी को देखने आने वाले हैं, लड़का शिक्षाकर्मी है, समधियों को देने के लिए कुछ दान दहेज खरीदने जाना है कि नहीं ? मैंने मित्र को चाय पिला कर विदा किया, फिर पत्नी से कहा, हमारी शादी जल्दी हो गई है क्या ? क्यों जी, अब होती तो क्या होता। कुछ नहीं, बस सोच रहा हूं कि इस दौर में शादी होती तो कम से कम मैं दो चार लाख का आसामी तो होता, ससुर जी से मिली मोटरसायकिल पर इठलाता, तुम्हें घुमाने ले जाता, मेरा तो नुकसान हो गया न ? पत्नी तुनक गई - कैसा नुकसान, वह तो अच्छा हुआ कि मेरे पिताजी ने तुम्हें पसंद कर लिया, तुम्हारे गले बांध दिया, वरना तुम तो कुंवारे ही रह जाते।
मैंने शुक्र मनाया कि चलो मेरे ससुर जी को कुछ रहम तो आया और मुझे अपनी चहेती सौंप दी थी। अब मैं आइडिये की जुगाड़ में हूं कि मेरे ससुरे ने पंद्रह साल पहले जो मेरा नुकसान किया था, उसकी वसूली कर सकूं, आपके पास कोई आईडिया है क्या ?
सूनी सड़क पर सुबह-सुबह एक काफिला सा चला आ रहा था, आगे-आगे कुछ लोगअर्थी लिए हुए तेज कदमों से चल रहे थे। राम नाम सत्य है के नारे बुलंद हो रहे थे।शहर में ये कौन भला मानुष स्वर्गधाम की यात्रा को निकल गया, पूछने पर कुछ पतानहीं चला। मैने एक परिचित को रोका, लेकिन वह भी रूका नहीं। मैं हैरान हो गया, हरचीज में खबर ढूंढने की आदत जो है, तो मैने अपने शहर के ही एक खबरीलाल कोमोबाईल से काल करके पूछा। उसने कहा घर पर हूं, यहीं आ जाओ फिर आराम सेबताउंगा। मेरी दिलचस्पी और भी बढ़ती जा रही थी। आखिर शहर के भले मानुषों कोहो क्या गया है जो एकबारगी मुझे बताने को तैयार नहीं कि धल्ले आवे नानका, सद्देउठी जाए कार्यक्रम आखिर किसका हो गया था। फिर भी जिज्ञासावश मैं खबरीलाल केघर पहुंच गया। बदन पर लुंगी, बनियान ताने हुए खबरीलाल ने मुझे बिठाया औरअपनी इकलौती पत्नी को चाय-पानी भेजने का आर्डर दे दिया। मैंने कहा, अरे यार, कुछ बताओ भी तो सही, तुमइतनी देर लगा रहे हो और मैं चिंता में पड़ा हुआ हूं कि कौन बंदा यह जगमगाती, लहलहाती, इठलाती दुनिया छोड़गया। खबरीलाल ने कहा थोड़ा सब्र कर भाई, जल्दी किस बात की है।
मैंने कहा, मुर्गे की किस्मत में कटना तो लिखा ही होता है। अब इसमें बेचारे घोटालेबाजों का क्या दोष।
खबरीलाल ने फिर से अपना ज्ञान बघारते हुए कहा, तुम समझ नहीं रहे हो। अरे भाई, मुर्गे को पालने वाली मालकिन के बारे में तुम्हें पता नहीं है। उसने इस कलगी वाले मजबूर मुर्गे को क्यों पाला ? यह मुर्गा लड़ाकू मुर्गों जैसा नहीं है। यह तो बिलकुल सीधा-सादा है, इसने अब तक घर के बाहर दूर-दूर क्या, आसपास की गंदगी पर फैला भ्रष्टाचार का दाना भी कभी नहीं चुगा। मालकिन कहती है कि बैठ जा, तो बैठ जाता है, फिर कहती है कि खड़े हो जा, तो खड़े हो जाता है। बेचारा जगमगाती दुनिया में हो रहे तरह-तरह के करम-कुकर्म से दूर है। लेकिन क्या करें, मालकिन के पड़ोसियों की नजर इस पर कई दिनों से गड़ गई है। इसलिए बिना कोई अगड़म-बगड़म की परवाह किए इसे निपटाने के लिए प्रपंच रचते रहते हैं। इतना स्वामीभक्त है कि एक बार इसके साथी मुर्गे ने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है, तो पता है इसने क्या कहा। इसने कहा कि मेरा नाम तो सुंदरलाल है, फिर भी मालकिन से पूछ कर बताउंगा, बताओ भला, कोई और होता तो इतना आज्ञाकारी होता क्या ? अब ऐसे मुर्गे को भाई लोग बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
मैंने झल्लाते हुए कहा कि अरे यार, मैं उस अर्थी के बारे में पूछने आया था और तुमने मुर्गा, मालकिन, घोटाला कीकहानी शुरू कर दी।
उसने हाथ उठाकर किसी दार्शनिक की तरह कहा, अरे शांत हो जा भाई, यह सब उसी अर्थी से जुड़ी कहानी का हिस्सा है। असल में गांव, शहर, महानगर के भले लोग, रोज-रोज घोटालों से तंग आ चुके हैं। अब घोटाले हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे, तो भलेमानुषों ने सोचा कि जब घोटाला, भ्रष्टाचार करने वाले इतनी दीदादिलेरी से इतरा रहे हैं, खुलेआम घूम रहे हैं, निडर हैं, बेधड़क हैं, शान से मूंछें ऐंठ रहे हैं, तो हम क्यों स्वाभिमानी, ईमानदार, सदाचारी, देशप्रेमी बने रहें। इसीलिए अपना यह सुघ्घड़ सा चोला उतारकर उसकी अर्थी निकाल दी है और उसे फंूकने के लिए शमशान घाट गए हैं। शाम को श्रध्दांजली सभा भी है, तुम चलोगे ?
मैंने खबरीलाल को दोनों हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर कहा कि धन्य हो श्रीमान, आप और आपका ज्ञान दोनों हीसत्य है।
खबरीलाल ने कहा, याद रखो मित्र कि जीवन का अंतिम सच, राम नाम सत्य ही है। जाने कब, इससीधे-सादे, कलगीवाले, आज्ञाकारी मुर्गे का भी राम नाम सत्य हो जाए ?